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कुदरत का कहरः आपदा ने घर-आंगन ही नहीं छीने, कमर भी तोड़ डाली

आराकोट में आपदा ने ग्रामीणों के घर-आंगन ही नहीं छीने आजीविका का मुख्य जरिया भी छीन लिया। लोगों को यहां इतने गहरे जख्म मिले हैं कि उनके लिए संभलना भी मुश्किल हो गया है।

By BhanuEdited By: Published: Tue, 20 Aug 2019 11:09 AM (IST)Updated: Tue, 20 Aug 2019 03:37 PM (IST)
कुदरत का कहरः आपदा ने घर-आंगन ही नहीं छीने, कमर भी तोड़ डाली
कुदरत का कहरः आपदा ने घर-आंगन ही नहीं छीने, कमर भी तोड़ डाली

उत्तरकाशी, जेएनएन। आराकोट में आपदा ने ग्रामीणों के घर-आंगन ही नहीं छीने, आजीविका का मुख्य जरिया भी छीन लिया। लोगों को यहां इतने गहरे जख्म मिले हैं कि उनके लिए संभलना भी मुश्किल हो गया है। आराकोट सेब के लिए खास पहचान रखता है, पर आपदा ने इस पहचान को ही मिट्टी में मिला दिया, जिससे बागवानों के हाथ रीते हो गए हैं। 

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गौरतलब है कि रविवार सुबह बादल फटने से उत्तरकाशी की न्याय  पंचायत आरोकोट के गांवों में कुदरत का कहर बरपा। यहां के दर्जनों गांवों में मृतक संख्या 13 पहुंच गई, जबकि लगभग 15 लोग अब भी लापता बताए जा रहे हैं। हालांकि, जिला प्रशासन छह से सात लोगों के लापता होने की पुष्टि कर रहा है।

इन गांवों में 50 से 60 लोग चोटिल भी हुए हैं। इनमें से छह को हेली रेस्क्यू करके अस्पतालों तक पहुंचाया गया। चार का देहरादून में इलाज चल रहा है। करीब 28 घंटे बाद सोमवार सुबह प्रभावित क्षेत्रों में रेस्क्यू टीमों के पहुंचने का सिलसिला शुरू हुआ। माकुडी और बलावट गांव में चौतीस घंटे बाद हेलीकॉप्टर से रेस्क्यू टीमों को ड्रॉप किया जा सका। टिकोली में यह भी संभव नहीं हो पाया, हालांकि पूर्वाह्न करीब 11 बजे यहां पैदल टीम पहुंच गई थी। 

बरसाती नालों के उफान के साथ आए मलबे ने यहां का एक प्रकार से भूगोल ही बदल कर रख दिया है। संपर्क मार्ग, पैदल रास्ते, पुलिया टूटने से गांवों तक पहुंचना चुनौती बना हुआ है। इसी के चलते रविवार सुबह उत्तरकाशी मुख्यालय ये यहां से लिए चली रेस्क्यू टीमों के सोमवार सुबह पहुंचने का सिलसिला शुरू हो पाया जो दोपहर बाद तक चला। 

सेब की फसल हुई तबाह 

आराकोट के 35-वर्षीय सुदेश रावत बताते हैं कि उनका 650 पेड़ों का सेब का बागीचा था और सभी पेड़ फलों से लकदक थे। इस बार उन्हें 15 हजार टन सेब के उत्पादन का अनुमान था और 20 अगस्त से सेब को तोड़ने का कार्यक्रम भी तय था। इसके लिए उन्होंने चंडीगढ़ के आढ़तियों से बात भी की थी, लेकिन आपदा में पूरा बागीचा तबाह हो गया। बागीचे के बीच एक घर भी था, जिसमें गाय बंधी थी। बागीचा के साथ घर का भी कहीं पता नहीं है। इस आपदा ने उनकी आजीविका को जड़ से ही खत्म कर दिया। 

इसी तरह से मोंडा गांव के अब्बल सिंह चौहान बताते हैं कि आराकोट क्षेत्र में 70 से अधिक बड़े बागीचे भूस्खलन की चपेट में आए हैं। जिससे 500 से अधिक बागवानों की कमर टूट गई है। पहले एक सीजन की फसल खराब होती थी तो बागवान दूसरे सीजन की फसल से संतोष कर लेता था। लेकिन, जब बागीचे ही गायब हो गए तो उम्मीद भी पूरी तरह टूट गई है। 

कहते हैं सेब के बागीचों को सबसे अधिक नुकसान आराकोट, मोल्डी, मलाना, एराला, नगवाड़ा, चिवां, टिकोची, ढुचाणू, किराणू, खकवाड़ी, माकुड़ी, जागटा, बलाटव आदि गांवों में पहुंचा है। 

आपदा प्रभावित जिले में आपदा प्रबंधन का नामोनिशान नहीं

गढ़वाल मंडल के सीमांत जिले उत्तरकाशी और चमोली आपदा की दृष्टि से सबसे संवेदनशील हैं। इन जिलों में सालों से साल-दर-साल आपदा की बड़ी घटनाएं घट रही हैं, फिर आपदा प्रबंधन का तंत्र मजबूत नहीं हो पा रहा। तंत्र की मजबूती के लिए अभी तक जो भी जो प्रयास हुए, वह सरकारी पैसे को ठिकाने लगाने से आगे नहीं बढ़ पाए। इसकी बानगी उत्तरकाशी के आराकोट क्षेत्र में आई आपदा है, जहां आपदा प्रबंधन तंत्र हवा-हवाई साबित हुआ।

एक दशक से कहर बरपा रही आपदा 

उत्तरकाशी जिले में बीते एक दशक से से लगातार आपदा कहर बरपा रही है। वर्ष 2012 में असी गंगा घाटी तो 2013 में पूरे उत्तरकाशी जिले में भारी तबाही हुई। फिर वर्ष 2016, 2017 व 2018 में भी यमुनोत्री, गंगोत्री, धराली, बणगांव आदि स्थानों पर आपदा ने विकराल रूप दिखाया। बावजूद इसके न तो आपदा प्रबंधन ने इससे कोई सीख ली और न प्रशासन ने ही। यही वजह है कि आपदा आने पर आज भी प्रभावितों से ज्यादा बेबस आपदा प्रबंधन विभाग नजर आ रहा है। 

24 घंटे बाद पहुंची राहत टीम 

आराकोट की घटना को ही देखिए, आपदा प्रबंधन की टीम यहां 24 घंटे बाद पहुंच सकी। गांव, तहसील और न्याय पंचायत स्तर का आपदा प्रबंधन तंत्र यहां पूरी तरह धराशायी नजर आया। न तो गांव में रेस्क्यू का सामान दिखाई दिया, न आपदा प्रबंधन का प्रशिक्षित कर्मी ही। जबकि, जिला आपदा प्रबंधन अधिकारी देवेंद्र पटवाल के अनुसार कुछ दिन पहले हर गांव में पांच-पांच दिन का रेस्क्यू प्रशिक्षण दिया गया था। 

इस प्रशिक्षण में प्रति गांव 25 हजार की धनराशि भी खर्च की गई थी। यही नहीं, एक वर्ष पहले आपदा प्रबंधन की ओर हर गांव को आपदा की किट भी दी गई थी। लेकिन इस किट में सर्च लाइट की जगह सामान्य टॉर्च दी गई थी। इसके अलावा अन्य सामान की स्थिति भी यही थी। नतीजा, आपदा प्रबंधन का यह सामान ग्रामीणों के किसी काम नहीं आया।

दुश्वारियों के बीच राहत और रेस्क्यू

आपदा प्रभावित आराकोट क्षेत्र में रेस्क्यू और राहत पहुंचाने के लिए टीम कहीं 28 घंटे तो कहीं 34 घंटे बाद पहुंच पाईं। इस दौरान टीमों को तमाम दुश्वारियों भी झेलनी पड़ीं। सोमवार को मौसम ने तो साथ दिया, लेकिन प्रभावित क्षेत्रों तक पहुंचने के लिए टूटी सड़कें व पैदल रास्ते बाधक बने। अलबत्ता हेली के जरिये रेस्क्यू करने में मौसम का साथ मिला। 

जिला मुख्यालय उत्तरकाशी से करीब  210 किमी दूर आराकोट और 220 किमी दूर टिकोची क्षेत्र में रविवार सुबह आपदा ने भारी तबाही मचाई। लेकिन, रविवार रात तक जिला मुख्यालय और राजधानी देहरादून से रवाना हुई रेस्क्यू टीमें त्यूणी तक ही पहुंच पाई थीं। त्यूणी और आराकोट के बीच पंद्राणू के पास मार्ग बंद होने के कारण ये टीमें आगे नहीं जा पाईं। जबकि, स्थानीय पुलिस और राजस्व विभाग की टीम रविवार रात आराकोट तक ही पहुंच पाई थीं।

सोमवार तड़के आइटीबीपी (भारत-तिब्बत सीमा पुलिस) और एनडीआरएफ (राष्ट्रीय आपदा प्रतिवादन बल) की टीमें आराकोट पहुंचीं। यहां से ये टीम टिकोची, माकुड़ी व चिवां के लिए रवाना हुईं। लेकिन, सुबह नौ बजे तक रेस्क्यू टीम टिकोची पहुंच पाई। इस टीम को जंगल के बीच से करीब दस किमी का सफर पैदल तय करना पड़ा। दोपहर में हेलीकॉप्टर से एक रेस्क्यू टीम माकुड़ी और एक टीम बलावट पहुंचाई गई। साथ ही राहत सामग्री भी वायु सेना के चॉपर से ड्रॉप कराई गई। 

चिकोटी व चिंवा में नहीं चला अभियान 

कुल मिलाकर यह रेस्क्यू अभियान टीमों के लिए चुनौती भरा रहा। प्रभावित गांवों में फौरी राहत तो पहुंची है, लेकिन जो लोग लापता हैं, उनके रेस्क्यू के लिए टिकोची व चिवां में अभी भी अभियान नहीं चलाया गया। टिकोची निवासी गुड्डू पंवार ने बताया कि टिकोची और चिवां में करीब छह लोग लापता हैं। इनमें ज्यादातर दूसरे स्थानों के हैं।

घर के बाहर थे तो बच गई किशन और मोहनलाल की जान

जाको राखे साइयां, मार सके न कोय, यह कहावत उत्तरकाशी जिले की बंगाण पट्टी के माकुडी गांव निवासीचतर सिंह पर सटीक बैठती है। रविवार तड़के जब कुदरत का कहर सैलाब बनकर टूटा तो चतर सिंह के घर में मौजूद सभी सदस्य काल के गाल में समा गए। लेकिन, तब चतर सिंह का बड़ा भाई किशन सिंह घर के बाहर था, इसलिए उसकी जान बच गई। 

रविवार सुबह हुई मूसलाधार बारिश के साथ आया मलबा चतर सिंह के तीन मंजिले मकान पर कहर बनकर टूटा। तब घर में चतर सिंह, उसकी मां सोना देवी व पत्नी कलावती देवी, भाई जबर सिंह व उसकी पत्नी माला देवी, बड़े भाई किशन सिंह की पत्नी कला देवी व 13-वर्षीय पुत्री ऋतिका मौजूद थे, जो मलबे में दफन हो गए। इनमें से अभी तक चार लोगों के शव बरामद हो चुके हैं। किशन सिंह उस वक्त घर से बाहर था, इसलिए उसकी जान बच गई।

इसी तरह राजकीय इंटर कॉलेज आराकोट में बीते 17 वर्ष से हिंदी प्रवक्ता बिजनौर निवासी बिजेंद्र सिंह व उनकी 22-वर्षीय बेटी शैलू और मेंजणी निवासी मोहनलाल की पत्नी सोना देवी की भी घर में घुस आए मलबे में दबकर मौत हो गई। मोहनलाल की जान इसलिए बच गई कि वह थोड़ी देर पहले नदी का बहाव देखने के लिए घर से बाहर निकला था। 

माकुड़ी निवासी विपिन रावत ने बताया कि जब गांव के बीच पानी व मलबे का सैलाब आया तो लोग घरों के अंदर थे। उन्होंने  जब पत्थर लुढ़कने की आवाज सुनी, तब जाकर इधर-उधर भागे।

तू नाश्ता बना, मैं नदी देख कर आता हूं

राजकीय इंटर कॉलेज आराकोट (उत्तरकाशी) में शिक्षक मोहनलाल कहते हैं, मैं पत्नी सोना देवी के साथ सुबह करीब पांच बजे उठ गया था। रातभर बारिश के कारण ठीक से नींद नहीं आ पाई। सुबह साढ़े सात बजे जब मैं नदी के उफान को देखने के लिए निकला तो पत्नी से कह गया कि वह नाश्ता तैयार करके रखे। वह किचन में नाश्ता तैयार करने में जुट गई थी। नदी का उफान लगातार बढ़ रहा था। मैं सड़क तक पहुंचा ही था कि इतने में घर के ऊपर पहाड़ी से सैलाब फूट पड़ा और देखते ही देखते पूरा घर नदी में समा गया। काश! मैं पत्नी के साथ सड़क पर आया होता तो यह दिन न देखना पड़ता। 

मेरी गोद से छीना मेरा बच्चा 

आराकोट गांव की अंजना पत्नी रोहित आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं। कुदरत के इस कहर ने अंजना से घर तो छीना ही, उसकी दस माह का बेटा भी छीन लिया। राइंका आराकोट के राहत कैंप में रोते- बिलखते अंजना ने कहा कि जब उनके आंगन तक उफान पहुंचा तो वह सबसे पहले कमरे के अंदर गई और अपने दस माह के बेटे कौशिक को गोद में उठाया। लेकिन, कमरे से बाहर आते हुए सैलाब ने उनकी गोद से बच्चे को छीन लिया।   

साथी ने बचाई जान, इसलिए जिंदा हूं 

बस मालिक सुशील सेमवाल कहते हैं कि उनकी बस शनिवार को उत्तरकाशी से आराकोट चिवां पहुंची थी। रविवार सुबह बस को चिवां से उत्तरकाशी लौटना था। तड़के जब उफान आया, तब मैं बस के अंदर था। उफान सड़क तक पहुंचा और बस उसमें बहने लगी। मेरे दूसरे साथी ने बस से बाहर कूदने के लिए आवाज दी। फिर साथी ने खिड़की से हाथ दिया, जिसे पकड़कर मैं बाहर निकला। तब जाकर जान बच सकी, लेकिन बस उफान की चपेट में आ गई। 

सैलाब ने संभलने का मौका ही नहीं दिया 

आराकोट निवासी सेवानिवृत्त शिक्षक जब्बर सिंह कहते हैं कि रविवार की सुबह उनके जीवन में सबसे दहशत भरी सुबह थी। इस प्रलय ने एक पल के लिए भी लोगों को संभलने का मौका नहीं दिया। मैं तब अपने घर पर ही था। नदी की दूसरी ओर के घरों के ऊपर से एक उफान आया। शिक्षक मोहनलाल की पत्नी उन घरों के पास से सीधे दूसरी ओर के किनारे पर आई। जहां उसका शव बरामद हुआ। उफान इस कदर विकराल था कि उसने पावर नदी का बहाव ही रोक दिया। कुछ देर तो ऐसा लगा कि पावर नदी में झील बनने जा रही है। 

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उत्तरकाशी आपदा के सात घायल दून में भर्ती

उत्तरकाशी आपदा के घायलों को सोमवार सुबह हवाई एंबुलेंस द्वारा सहस्रधारा हेलीपेड लाया गया। यहां से उन्हें दून मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भर्ती कराया गया। जहां चिकित्सकों ने उनकी हालत सामान्य बताई है। विशेषज्ञ चिकित्सक उनका उपचार कर रहे हैं। 

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सीएमओ डॉ. एसके गुप्ता व प्राचार्य डॉ. आशुतोष सयाना ने अस्पताल पहुंचकर डॉक्टरों एवं अन्य स्टाफ को आवश्यक निर्देश दिए। घायल राधा देवी, सोहनलाल निवासी आराकोट, जालम सिंह और राजेंद्र सिंह चकराता को लाया गया। जबकि तीन मरीज सक्षम, हितेश व उपेंद्र को शाम को लाया गया है।

दून मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य डॉ. आशुतोष सयाना एवं चिकित्सा अधीक्षक डॉ. केके टम्टा का कहना है कि अस्पताल लाए गए सभी आपदा पीड़ितों की हालत स्थिर है। वह सामान्य बातचीत कर रहे हैं। इनमें दो का एक्सरे कराया गया है, हल्की-फुल्की चोटें उनको लगी हैं।

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