अजय कुमार, उत्तरकाशी। आज के दिन उत्तरकाशी के आराध्य कंडार देवता प्रकट हुए थे, उन्हें उत्तरकाशी का कोतवाल व क्षेत्राधिपति माना जाता है। कहते हैं जहां पंडित की पोथी, डॉक्टर की दवा व कोतवाल का डंडा काम नहीं आता, वहां कंडार देवता काम आते हैं।
यही वजह है कि वास्तु दोष से लेकर बीमारी, दैवीय प्रकोप आदि से उत्पन्न समस्या के समाधान के लिए श्रद्धालु उनके दरबार में पहुंचते हैं। हर तरह की विपत्ति निराकरण करने का चमत्कारी प्रभाव उनमें विद्यमान है।
विवाह, मुंडन, वर-कन्या की जन्मकुंडली मिलान आदि के लिए देवता के बताये नियम व शुभ दिन बार अनुसार ही लोग कार्य करते हैं।
जिला मुख्यालय से करीब 12 किमी की दूर वरुणावत पर्वत के शीर्ष पर स्थित संग्राली गांव में एक ऊंचे स्थान पर कंडार देवता का प्राचीन मंदिर है।
अपनी पुस्तक उत्तरकाशी के धार्मिक एवं पर्यटन स्थल में डॉ. सुरेंद्र सिंह मेहरा लिखते हैं कि कंडार देवता का मूल स्थान वरुणावत पर्वत के पश्चिमी भाग में बताया गया है, जिसे कंडार खोला कहते हैं।
कहा जाता है देवता की मूर्ति बाड़ाहाट के खेतों से निकली थी, जहां पर वर्तमान समय में जिला कार्यालय स्थित है। खेत जोतते समय एक किसान को कंडार देवता की अष्टधातु से निर्मित मूर्ति प्राप्त हुई।
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तत्कालीन प्रथा के अनुसार समस्त भूमि तथा भूमि के गर्भ से में पाई जाने वाली सामग्री पर राजा का अधिकार होता था, इसलिए किसान ने मूर्ति राजा के पास पहुंचा दी। उस समय चांदपुर गढ़ में राजधानी थी।
कनकवंश महाकाव्य के अनुसार सोहनपाल का शासन था। मूर्ति पर हल के फाल की रगड़ के निशान कुछ समय पहले तक दिखाई देते थे। राजा ने मूर्ति को अपने देवालय में सबसे नीचे रख दिया।
दूसरे दिन जब राजा देवालय में पहुंचे तो राजा ने देखा कि मूर्ति अन्य मूर्तियों में सबसे ऊपर प्रतिष्ठित थी। राजा ने मूर्ति को पुन: नीचे रख दिया। पुन: तीसरे दिन राजा ने मूर्ति को सबसे ऊपर पाया।
तीन-चार बार यही घटना घटी, जिससे राजा प्रभावित हुए। अंत में राजा ने किसान को बुलाकर वह मूर्ति उसे लौटा दी। देवता की इच्छा पर ग्राम वासियों ने देवदार के जंगल में मूर्ति को स्थापित कर दिया।
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संग्राली गांव में स्थित कंडार देवता का मंदिर। साभार संदीप सेमवाल
यह जगह संग्राली गांव में स्थित कंडार देवता मंदिर ही है। जहां तभी से नित्य देवता की पूजा-अर्चन होती है। कंडार देवता की चल मूर्ति है। साथ ही इसकी अपनी डोली है, जिसमें विराजमान होकर कंडार देवता एक गांव से दूसरे गांव जाते हैं।
वर्तमान समय में बाड़ाहाट क्षेत्र में जिला कार्यालय के पास भी कंडार देवता का मंदिर है। उत्तरकाशी के ऐतिहासिक व पौराणिक माघ मेले का उद्घाटन भी कंडार देवता की डोली व हरि महाराज के ढोल की मौजूदगी में ही होता है।
संग्राली गांव के साथ पाटा, बगियाल गांव, बसुंगा, ज्ञाणजा, गंगोरी आदि के ग्रामीणों में भी देवता के प्रति अटूट श्रद्धा है। कंडार देवता को माना जाता है शिव का गण केदारखंड पुराण में कंडार देवता को कंडार भैरव कहा गया है।
कहा जाता है कि शिव के अनेक गणों में कंडार भी एक गण हैं। देवता की अष्टधातु की मुखौटे की मूर्ति डोली के भीतर सजी रहती है। यह डोली डुलेरों (जो डोली को हिलाते-डुलाते हैं) के कंधों पर स्वयं हिलती-डुलती है और पुजारी के प्रश्नों का उत्तर देती है।
किसी महामारी या भूत-प्रेत लगने पर डोली क्रोधित होती है, क्रोधित होने पर प्रतिमा पर पसीना झलकता है। यहां कोई भी वृद्ध डोली का भाव जान जाता है। राजशाही के शासनकाल में कंडार देवता के मंदिर तृतीय श्रेणी का मंदिर था। इसे राज्य की ओर से एक रुपया चार आना छह पाई का बंधान देवता को चढ़ता था।
कंडार देवता क्षेत्र के आराध्य देवता हैं। जैसे काशी में काल भैरव को कोतवाल माना जाता है, उसी तरह कंडार देवता को उत्तरकाशी का कोतवाल माना जाता है। सच्चे मन से उनकी पूजा-अर्चना करने वाले श्रद्धालु के सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं।
-विजयलाल नैथानी, मुख्य पुजारी, कंडार देवता मंदिर संग्राली।
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