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यहां आज भी जिंदा है चूड़े भेंट करने की परंपरा, ये है मान्यता

बड़कोट तहसील की बनाल पट्टी के 22 और ठकराल पट्टी के 18 गांव में देवलांग पर्व की अलग ही परंपरा है। यहां प्रमुख पकवान चावल के चूड़े तैयार करने की मान्यता आज भी बरकरार है।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Wed, 05 Dec 2018 03:18 PM (IST)Updated: Wed, 05 Dec 2018 04:32 PM (IST)
यहां आज भी जिंदा है चूड़े भेंट करने की परंपरा, ये है मान्यता
यहां आज भी जिंदा है चूड़े भेंट करने की परंपरा, ये है मान्यता

उत्तरकाशी, जेएनएन। परंपराओं की खास पहचान रखने वाली रवाईं घाटी में देवलांग प्रमुख लोक उत्सव है। बड़कोट तहसील की बनाल पट्टी के 22 और ठकराल पट्टी के 18 गांव में देवलांग पर्व की अलग ही परंपरा है। यहां प्रमुख पकवान चावल के चूड़े तैयार करने को लेकर पौराणिक मान्यताएं आज भी बरकरार हैं, जो आपसी सौहार्द से भी जुड़ी हुई हैं। इस बार देवलांग उत्सव मंगसीर की अमावस्या यानी 7 दिसंबर को है। इसी को लेकर इन गांवों में तैयारियां चल रही हैं। 

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बड़कोट तहसील के बनाल पट्टी के 21 व ठकराल पट्टी के 17 गांवों में इन दिनों देवलांग पर्व के लिए ओखलियों में चूड़े कूटे जा रहे हैं। लेकिन, बनाल के गौल गांव और ठकराल के पटागणी गांव में ओखलियां सूनी पड़ी हुई हैं। पर इन दोनों गांवों में कभी चूड़े की कमी महसूस नहीं हुई है। 38 गांव मिलकर इन दोनों गांवों के ग्रामीणों को चूड़ा भेंट करते हैं। गौल और पटागणी के ग्रामीणों की मान्यता है कि अगर वे ओखली में चूड़े कूटेंगे तो उनके आराध्य देव रघुनाथ महाराज नाराज हो जाते हैं। 

गौल गांव के 75 वर्षीय विजयपाल चौहान का कहना है कि इस मान्यता को ग्रामीण आज से नहीं बल्कि पीढ़ियों से मानते आ रहे हैं। गंगटाड़ी गांव के राघुनाथ महाराज मंदिर के अध्यक्ष उज्जवल सिंह असवाल कहते हैं कि पौराणिक मान्यता कि गौल व पटागणी गांव में अगर कोई चूड़ा कूटता है तो राघुनाथ महाराज के सिरदर्द होता है, जिससे देवता नाराज होते हैं। गौल गांव के 35 वर्षीय यशवंत चौहान कहते हैं कि देवलांग पर्व का मुख्य पकवान चूड़ा है। लेकिन, अन्य गांवों के ग्रामीण उन्हें चूड़ा भेंट करते हैं। यह एक सौहार्द की परंपरा है, जो अभी तक जिंदा है। 

गुरुकुल विवि हरिद्वार के मनोविज्ञान के प्रो. डॉ. चंद्रप्रकाश खोकर कहते हैं कि मान्यताएं मन की उपज हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में उन मान्यताओं को मान लेना वहां के परिवेश के लिए स्वभाविक बात है। लेकिन, हो सकता है कि गौल व पटागणी गांव की भौगोलिक संरचना ऐसी हो कि ओखली में चूड़ा कूटने पर गांव में कंपन व गूंज अधिक होती हो। 

रघुनाथ मंदिर के निकट पहाड़ी पर है दोनों गांव 

जनपद मुख्यालय से गौल गांव 100 किलोमीटर व पटागणी गांव 120 किलोमीटर दूर है। गौल गांव में 28, पटागणी में 38 परिवार हैं। भौगोलिक स्थिति के अनुरूप गौल गांव जोन के लिए पहले गैर गांव में जाना पड़ता है। गैर गांव में क्षेत्र के आराध्य देव राजा रघुनाथ महाराज का मंदिर है। यह मंदिर 14वीं शताब्दी का बताया जाता है। गैर गांव के पांच सौ मीटर की चढ़ाई पर गौल गांव है। ठीक इसी तरह की भौगोलिक स्थिति पटागणी गांव की है।

 

चूड़ा बनाने की विधि 

धान को पीतल के बर्तन में एक दिन तक भिगोया जाता है, जिसके बाद आग में तव्वे में भूनकर चपटा करने के लिए ठंडा होने से पहले अखोली में तेजी से कूटा जाता है। ओखली में कूटने की प्रक्रिया को बेहद ही तेजी से करना पड़ता है। इसलिए ओखली में धान कूटने की धमक काफी तेजी होती है। 

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