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    KedarNath Yatra 2025: कपाट बंद होना केवल परंपरा नहीं, देवभूमि की आत्मा का दर्शन

    Updated: Fri, 24 Oct 2025 09:02 AM (IST)

    उत्तराखंड में मंदिरों के कपाट बंद होना केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि देवभूमि की आत्मा का दर्शन है। सर्दियों में बर्फबारी के कारण कपाट बंद किए जाते हैं, जो ध्यान और आत्मचिंतन का समय होता है। यह परंपरा उत्तराखंड की संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है और प्रकृति और आध्यात्मिकता के संगम को दर्शाती है। यह अनुभव हर किसी को आकर्षित करता है।

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    केदारनाथ मंदिर के कपाट बंद होने के बाद अपने शीतकालीन गददीस्थल के लिए रवाना होती बाबा की उत्सव की डोली। सतीश गैरौला

    बृजेश भट्ट, जागरण रुद्रप्रयाग। अनादिकाल से केदारनाथ धाम के कपाट बंद होने की परंपरा चली आ रही है। बुधवार को जब भगवान केदारनाथ के कपाट शीतकाल के लिए बंद हुए, तो पूरा वातावरण आस्था, भक्ति और भावनाओं से सराबोर हो गया। यह दृश्य केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं था, बल्कि देवभूमि उत्तराखंड की जीवंत आत्मा का साक्षात दर्शन था।

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    हर वर्ष की भांति इस बार भी भगवान केदारनाथ के कपाट विधि-विधान से बंद किए गए। मान्यता है कि छह महीने तक भगवान शिव उच्च हिमालय स्थित केदारपुरी में विराजमान रहते हैं और वहीं भक्तों को दर्शन देते हैं, जबकि शेष छह महीने शीतकाल के दौरान शीतकालीन पंचकेदार गद्दीस्थल ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ में स्थापित रहती है। यहीं पर भगवान की निज पूजाएं संपन्न होती हैं।

    धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, शीत ऋतु में केदारपुरी क्षेत्र में आठ से दस फीट तक बर्फ जम जाती है, जिससे वहां मानव जीवन असंभव हो जाता है। माना जाता है कि इन छह महीनों में देवता स्वयं केदारपुरी में निवास करते हैं और नित्य पूजा-अर्चना करते हैं। पौराणिक परंपरा के अनुसार आठवीं शताब्दी से डोली यात्रा की परंपरा चली आ रही है। आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा जब चार धामों की स्थापना की गई थी, उसी काल से कपाट खुलने और बंद होने की यह अद्भुत परंपरा प्रारंभ हुई।

    कपाट बंद होने का यह क्षण केवल एक धार्मिक कार्यक्रम नहीं, बल्कि श्रद्धा, संस्कृति और आस्था का वह संगम है, जिसमें देवभूमि उत्तराखंड की आध्यात्मिक पहचान और लोक परंपराएं एक साथ जीवंत हो उठती हैं।

    केदारनाथ के वयोवृद्ध तीर्थपुरोहित व बद्रीकेदार मंदिर समिति के सदस्य श्रीनिवास पोस्ती कहते हैं कि केदारनाथ धाम के कपाट बंद होने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। यह परंपरा काफी अनोखी होती है। छह महीने बाद बाबा केदारपुरी से विदा होते हैं। और ऊखीमठ गद्दीस्थल में विराजमान रहते हैं। और जब भगवान के कपाट शीतकाल के बाद खुलते हैं तो फिर से डोली यात्रा होती है, और पूरे क्षेत्र की जनता भोले बाबा को ग्रीष्काल के छह महीनो के लिए केदारपुरी के लिए विदा करते हैं।