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    मुक्ति को नारायण बलि ही अंतिम विकल्प

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    Updated: Fri, 19 Jul 2013 07:05 PM (IST)

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    दिनेश कुकरेती, रुद्रप्रयाग

    आपदा ने भविष्य पर ही सवाल खड़े नहीं किए, उन असंख्य परिवारों को भी दुविधा में डाल दिया है, जिनके अपने लौटकर नहीं आए। क्या वे अपने लापता परिजनों को मृत मानकर बाल उतार लें, मरण सूतक मानें या नहीं, दीया-बत्ती करना जारी रखें, ऐसे तमाम सवाल हैं, जो उनके जख्मों को और हरा कर रहे हैं। आखिर कब खत्म होगा उनका इंतजार। क्या पूरा जीवन लापता परिजनों के लौट आने की आस में खत्म हो जाएगा। जीवन चक्र से जुड़े इन गूढ़ सवालों का जवाब सिर्फ शास्त्र ही दे सकते हैं।

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    'शिव महापुराण' में कहा गया है कि अज्ञात व्यक्ति की मृत्यु नहीं होती, बल्कि वह परमात्मा में लीन हो जाता है, अगर वह देवकार्य के निमित्त घर से निकला था तो। इसी तरह गीता में योगेश्वर कृष्ण कहते हैं कि, 'जो मेरी शरण में आता है, उसे मैं मोक्ष देता हूं।' शास्त्रों में उल्लेख है कि ज्ञात-अज्ञात अवस्था में मृत्यु का संदेश जब तक प्राप्त नहीं होता, तब तक लापता व्यक्ति को मृत नहीं माना जा सकता। इसके लिए एक माह, तीन माह अथवा वर्षपर्यत तक इंतजार किया जाता है। इस अवधि में व्यक्ति के वापस न लौटने पर नारायण बलि के माध्यम से प्रेतत्व शांति का विधान है।

    नारायण बलि ऐसा विधान है, जिसमें लापता व्यक्ति को मृत मानकर उसका उसी ढंग से क्रियाकर्म किया जाता है, जैसे किसी की मौत होने पर। इस प्रक्रिया में कुश घास से प्रतीकात्मक शव बनाते हैं और उसका वास्तविक शव की तरह ही दाह-संस्कार किया जाता है। इसी दिन से आगे की क्रियाएं शुरू होती हैं, मसलन बाल उतारना, तेरहवीं, ब्रह्मभोज वगैरह। केदारघाटी की आपदा में लापता हुए कई लोगों के परिजन एक माह की अवधि पूर्ण होने पर इसी विधान से अपनों का क्रियाकर्म कर रहे हैं।

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    देवालय, शिवालय, तीर्थ अथवा पूजा स्थान पर किसी का शरीर छूटता है और वह अज्ञात हो जाता है तो उसे परमात्मा में लीन माना गया है। उसकी मृत्यु का पता न होने पर सूतक का विधान जानना असंभव है। जिस प्रकार एक संत के समाधिस्थ होने के उपरांत किसी प्रकार का सूतक नहीं माना जाता, उसी प्रकार भगवान के मार्ग पर निकले व्यक्ति का भी यही लक्षण माना गया है।

    आचार्य दीपक नौटियाल

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    एक माह, तीन माह अथवा वर्षपर्यत इंतजार के बाद भी यदि लापता व्यक्ति नहीं लौटता तो उसे प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने के लिए षोडशी क्रिया का विधान है। पितृ कर्मकांड के आधार पर नारायण बलि के बाद चितनल (कुभ कलश) की स्थापना की जाती है और 11वें दिन आत्मा प्रेतत्व से मुक्त हो जाती है।

    स्वामी दिव्येश्वरानंद, व्याकरणाचार्य

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