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उत्‍तराखंड के इस गांव में परदादा के सपनों को पोता दे रहा आकार, जानिए कैसे

पौड़ी जिले के द्वारीखाल ब्लॉक स्थित तिमली गांव निवासी आशीष डबराल ऐसे ही पोते हैं, जोपरदादा की विरासत को देश-दुनिया में नई पहचान दिलाने का भी प्रयास कर रहे हैं।

By Sunil NegiEdited By: Published: Sat, 17 Nov 2018 04:26 PM (IST)Updated: Sat, 17 Nov 2018 08:49 PM (IST)
उत्‍तराखंड के इस गांव में परदादा के सपनों को पोता दे रहा आकार, जानिए कैसे
उत्‍तराखंड के इस गांव में परदादा के सपनों को पोता दे रहा आकार, जानिए कैसे

पौड़ी, अजय खंतवाल। दादा की विरासत पर पोते का अधिकार होता है, लेकिन बिरले ही ऐसे पोते होंगे, जिन्होंने न सिर्फ दादा की विरासत को संजोकर रखा है, बल्कि उसे संवारने को ईमानदार प्रयास भी कर रहे हैं। पौड़ी जिले के द्वारीखाल ब्लॉक स्थित तिमली गांव निवासी आशीष डबराल ऐसे ही पोते हैं, जो दादा तो छोड़ि‍ए, परदादा की विरासत को भी न सिर्फ संजो रहे हैं, बल्कि उसे देश-दुनिया में नई पहचान दिलाने का भी प्रयास कर रहे हैं। 

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दरअसल, आशीष को परदादा बद्रीदत्त डबराल से विरासत में एक ऐसी पाठशाला मिली, जिसकी अंग्रेजी शासनकाल ब्रिटेन तक तूती बोलती थी। अंग्रेजी हुकूमत ने न सिर्फ इस पाठशाला को मान्यता दी हुई थी, बल्कि प्रतिवर्ष उसे अनुदान भी देती थी। आजादी के बाद वर्ष 1969 में आशीष के परदादा ने इस पाठशाला को सरकार के सुपुर्द कर दिया, लेकिन बाद में इस पर ताले लटक गए। अब आशीष परदादा की इस सौगात को पुनर्जीवित कर नई पहचान दिलाने में जुटे हुए हैं। 

1882 के दौर में जब पाठशाला शब्द पहाड़ी जनमानस के लिए महज कल्पना हुआ करता था, तब ग्राम तिमली में बद्रीदत्त डबराल ने अपने भाई दामोदार डबराल के साथ मिलकर तिमली संस्कृत पाठशाला की शुरुआत की। इस पुनीत कार्य में राय बहादुर कुलानंद बड़थ्वाल, भीम सिंह बिष्ट व थोकदार माधो सिंह ने भी उनका सहयोग किया। अंग्रेजी हुकूमत से मान्यता प्राप्त इस पाठशाला ने 1882 से 1949 तक देश को सैकड़ों वैदिक विद्वान देश को दिए। देश की आजादी के बाद बदली व्यवस्थाओं के अनुरूप पाठशाला ने स्वयं को परिवर्तित किया और 1950 में संस्कृत के साथ अंग्रेजी भी पाठ्यक्रम का हिस्सा बना दी गई।

हालांकि, आजादी के बाद पाठशाला को मिलने वाली सरकारी इमदाद बंद हो गई। बावजूद इसके बद्रीदत्त डबराल स्वयं के संसाधनों से विद्यालय को संचालित करते रहे। 1969 में उन्होंने पाठशाला को सरकार के सुपुर्द कर दिया और यहीं से पाठशाला के दुर्दिन भी शुरू हो गए।

23 गांवों के 30 बच्चे संवार रहे भविष्य

बद्रीदत्त डबराल का सपना क्षेत्र में एक ऐसी पाठशाला की स्थापना करना था, जिसमें विद्यार्थियों को वैदिक के साथ आधुनिक ज्ञान भी मिले। पाठशाला पर ताले लटकना आशीष को मन ही मन कचोट रहा था। सो, उन्होंने परदादा की इस विरासत को पुनर्जीवित करने का निर्णय लिया। वर्ष 2013 में उन्होंने तिमली विद्यापीठ के नाम से इस पाठशाला को दोबारा शुरू किया। आज इस पाठशाला में क्षेत्र के 23 गांवों के 30 बच्चे वैदिक ज्ञान के साथ अंग्रेजी की भी शिक्षा ले रहे हैं। इसके अलावा उन्हें रोबोटिक्स, ऑर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और माइंड फुलनेस प्रोग्राम भी पढ़ाया जाता है।

बच्चों के नाम दर्ज उपलब्धि

विद्यापीठ के बच्चे जहां वर्ल्‍ड रोबोटिक्स ओलंपियाड में प्रतिभाग कर चुके हैं, वहीं हाल ही में इन बच्चों ने अंतरिक्ष केंद्र में मौजूद नासा के अंतरिक्ष यात्री रिकी अर्नाल्ड से भी लाइव बातचीत की।

आशीष डबराल : एक परिचय

गुरुग्राम स्थित एक मल्टीनेशनल आइटी कंपनी में कार्यरत 35-वर्षीय आशीष हर सप्ताह करीब 350 किमी की दूरी तय कर अपने गांव पहुंचते हैं। मकसद क्षेत्र के बच्चों को इस काबिल बनाना है कि भविष्य में वो अपने घर में ही न सिर्फ अपना भविष्य लिख सकें, बल्कि अन्य को भी रोजगार मुहैया कराने के काबिल बन पाएं। आशीष के इस जज्बे को सराहते हुए ब्रिटिश टेलीकॉम के चेयरमैन ने उन्हें 'वालंटियर ऑफ द ईयर' घोषित किया। जबकि, उत्तराखंड सरकार ने उन्हें 'गढ़रत्न', 'देवत्व अवार्ड', 'उत्तराखंड एजुकेशन एक्सीलेंस-2017' व 'चैंपियंस ऑफ द चेंज' अवार्ड से नवाजा है। 

यह है भावी योजना

आशीष गांव में पिछले कई वर्षों से बंद पड़े सरकारी स्कूल को अधिग्रहीत कर वहां बोर्डिंग स्कूल चलाने की योजना बना रहे हैं। क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों ने भी इस नेक कार्य के लिए अपनी सहमति दे दी है। लेकिन सरकारी सिस्टम आशीष को न सिर्फ तिमली विद्यापीठ की मान्यता के नाम पर पिछले तीन साल से चक्कर कटवा रहा है, बल्कि बंद पड़े विद्यालय को उन्हें हस्तांतरित करने के लिए भी तैयार नहीं है।

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