Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    कागजों में सिमट गया ये स्वच्छ आइकोनिक स्थल, अस्तित्व बचाने को भी लड़ रहा लड़ाई

    By Raksha PanthriEdited By:
    Updated: Sun, 07 Mar 2021 05:57 PM (IST)

    गुमनामी के अंधेरों में घिरी महर्षि कण्व की तपोस्थली और चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली कण्वाश्रम को 2018 में जब केंद्र ने स्वच्छ आइकोनिक स्थल घोषित किया तो क्षेत्र की जनता को यहां के दिन बहुरने की उम्मीद नजर आने लगी।

    Hero Image
    'कण्वाश्रम' स्थित वह स्मारक, जिसकी स्थापना वर्ष 1956 में हुई थी। जागरण

    जागरण संवाददाता, कोटद्वार। गुमनामी के अंधेरों में घिरी महर्षि कण्व की तपोस्थली और चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली कण्वाश्रम को 2018 में जब केंद्र ने स्वच्छ आइकोनिक स्थल घोषित किया तो क्षेत्र की जनता को यहां के दिन बहुरने की उम्मीद नजर आने लगी। पर, वक्त के साथ उम्मीदें भी हवा हो गई। आज हालात यह हैं कि स्वच्छ आइकोनिक स्थल का दर्जा पाने के बाद भी कण्वाश्रम अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहा है। 

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    जानिए कण्वाश्रम के बारे में 

    उत्तराखंड के पौड़ी जिले में मालिनी नदी के तट पर स्थित कण्वाश्रम का वर्णन ऋग्वेद के साथ ही पुराणों, महर्षि व्यास रचित महाभारत, बाल्मीकि रामायण और महाकवि कालिदास की रचनाओं में मिलता है। स्कंद पुराण के 57 वें अध्याय में भी कण्वाश्रम का जिक्र है। दरअसल, कण्वाश्रम एक समय में आध्यात्म, ज्ञान-विज्ञान का विश्वविख्यात केंद्र था, जिसमें संपूर्ण विश्व के दस सहस्त्र विद्यार्थी कुलपति कण्व से शिक्षा ग्रहण करते थे। महर्षि कण्व के साथ ही विश्वामित्र, दुर्वासा आदि की तपोस्थली के साथ ही कण्वाश्रम मेनका-विश्वामित्र के और शकुंतला-राजा दुष्यंत की प्रणय स्थली भी रहा है। इसी कण्वाश्रम में चक्रवर्ती सम्राट भरत का भी जन्म हुआ।

     

    1192 ईस्वी में दिल्ली में हुकूमत कायम करने के बाद मोहम्मद गौरी ने देश के जिन धार्मिक व सांस्कृतिक स्थलों को तहस-नहस किया, उसमें 'कण्वाश्रम' भी शामिल है। 1227 ईस्वी में इल्तुतमिश की सेना ने मंडावर, बिजनौर को लूटने के बाद 'कण्वाश्रम' पर हमला किया। मुगलों के आने से शुरू हुआ विघटन 16वीं शताब्दी तक जारी रहा। क्षेत्रीय जन पलायन कर गए और पीछे छोड़ गए मालिनी नदी की अविरल बहती धारा व अतीत की यादें। बाद में कण्वाश्रम के घने जंगलों में डाकू सुल्ताना का एकछत्र राज कायम हो गया। 1932 में उसकी मौत के बाद इस क्षेत्र में बसागत शुरू हुई। 

    सो गए सुधलेवा, उजड़ रहा तीर्थ 

    आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू की 1955 में रूस यात्रा के दौरान रूसी कलाकारों ने महाकवि कालिदास रचित 'अभिज्ञान शाकुंतलम' की नृत्य नाटिका प्रस्तुत की। एक रूसी दर्शक ने पं. नेहरू से 'कण्वाश्रम' के बारे में जानना चाहा, लेकिन उन्हें जानकारी न थी। वापस लौटते ही पं. नेहरू ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. संपूर्णानंद को कण्वाश्रम की खोज का दायित्व सौंप दिया। 1956 में प्रधानमंत्री पं. नेहरू व उप्र के मुख्यमंत्री डा. संपूर्णानंद के निर्देश पर तत्कालीन वन मंत्री जगमोहन सिंह नेगी कोटद्वार पहुंचे व कण्वाश्रम (चौकीघाटा) के निकट एक स्मारक का शिलान्यास किया, जो आज भी मौजूद है। 

    इसे दुर्भाग्य ही कहा जाए कि राज्य गठन के बाद से आज तक कण्वाश्रम के विकास को कोई ऐसे कार्य नहीं हुए, जो इस पावन स्थल को उसकी पहचान वापस दिला सकें। जून 2018 में केंद्र ने कण्वाश्रम को स्वच्छ आइकोनिक स्थल की सूची में शामिल तो किया, लेकिन आज तक कण्वाश्रम के विकास को कोई योजना धरातल पर नजर नहीं आई है। अब प्रदेश सरकार ने कोटद्वार का नाम परिवर्तित कर कण्वनगरी कोटद्वार तो कर दिया है, लेकिन इससे भी कण्वाश्रम की तस्वीर बदलेगी, इसकी उम्मीदें कम ही हैं। 

    यह भी पढ़ें- उत्‍तराखंड में मॉडल के रूप में नजर आएगी पौड़ी की पोषण वाटिका, पढ़िए पूरी खबर

    Uttarakhand Flood Disaster: चमोली हादसे से संबंधित सभी सामग्री पढ़ने के लिए क्लिक करें