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वक्त के थपेड़े सह फौलाद बनी भुवनेश्वरी, परिवार के लिए कंधे पर उठाया हल

पौड़ी जिले के यमकेश्वर ब्लाक के सार गांव की भुवनेश्वरी देवी ने सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ परिवार की खातिर कंधे पर हल उठा लिया। यही हल उसकी आर्थिकी का मुख्य आधार भी है।

By Sunil NegiEdited By: Published: Sun, 15 Oct 2017 09:49 AM (IST)Updated: Sun, 15 Oct 2017 08:35 PM (IST)
वक्त के थपेड़े सह फौलाद बनी भुवनेश्वरी, परिवार के लिए कंधे पर उठाया हल
वक्त के थपेड़े सह फौलाद बनी भुवनेश्वरी, परिवार के लिए कंधे पर उठाया हल

कोटद्वार, [अजय खंतवाल]: 'मैंने उसको जब-जब देखा, लोहा देखा, लोहे जैसे तपते देखा, गलते देखा, ढलते देखा', नारी शक्ति की दास्तां बयां करती कवि केदारनाथ अग्रवाल की यह पंक्तियां यमकेश्वर ब्लाक के सार गांव की उस भुवनेश्वरी देवी पर पूरी तरह सटीक बैठती हैं, जिसने तमाम सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ परिवार की खातिर कंधे पर हल उठा लिया। बीते करीब ढाई दशक से भुवनेश्वरी स्वयं के साथ गांव के कई परिवारों के खेतों में जुताई कर रही है। यही हल उसकी आर्थिकी का मुख्य आधार भी है।

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 लोक मान्यताओं के अनुसार खेतों में बैलों के कंधों पर हल रखकर खेतों में जुताई का कार्य सिर्फ पुरुष ही कर सकते हैं। यह ऐसी सामाजिक वर्जना है, जो पर्वतीय क्षेत्र में आमतौर पर देखने को मिलती है। लेकिन, सार निवासी भुवनेश्वरी देवी ने इस वर्जना को तोड़ जीवटता की नई परिभाषा गढ़ी है। पौड़ी जिले के द्वारीखाल ब्लाक स्थित ग्राम घनस्याली (सिलोगी) निवासी भुवनेश्वरी के पिता महिपाल सिंह भंडारी काश्तकार थे, जबकि माता अमरा देवी गृहणी।

परिवार की माली हालत ठीक न थी, इसलिए भुवनेश्वरी ने तीसरी कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ खेतों में पिता का हाथ बंटाना शुरू कर दिया। पिता थकते तो भुवनेश्वरी स्वयं हल थाम खेत जोतने लगती। तब भले ही पिता को बेटी के हाथ में हल थमाना नागवार गुजरा हो, लेकिन उन्हें क्या मालूम था कि यही हल उनकी बेटी की नियति में लिखा है।

वर्ष 1992 में भुवनेश्वरी का विवाह ग्राम सार निवासी दिगंबर सिंह नेगी के साथ हुआ। शुरुआती एक वर्ष तक सब-कुछ ठीक-ठाक चला, लेकिन फिर दिगंबर का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और उन्होंने चारपाई पकड़ ली। फौज से सेवानिवृत्त दिगंबर को पेन्शन मिलती थी, जो उनके उपचार में ही खर्च होने लगी। ऐसे में परिवार की गुजर करना भुवनेश्वरी के लिए चुनौती बन गया। 

हालात विपरीत थे, लेकिन भुवनेश्वरी ने हार मानने के बजाय उनसे लड़ने की ठान ली। समाज की परवाह किए बगैर वह कंधे पर हल उठा खेतों की ओर निकल पड़ी। स्वयं के खेत काफी कम थे, सो गांव में अन्य लोगों के खेतों में हल चलाकर भुवनेश्वरी ने पटरी से उतर चुकी परिवार की गाड़ी को दोबारा पटरी पर लाना शुरू कर दिया।

इससे पहले कि हालात ढर्रे पर आते, नियति फिर भुवनेश्वरी की परीक्षा लेने लगी। पति दिगंबर को हार्ट संबंधी बीमारी हो गई और लगातार दो बार उनके हार्ट का ऑपरेशन होने के कारण भुवनेश्वरी करीब चार लाख के कर्ज में डूब गई। दुर्भाग्य देखिए कि तमाम प्रयासों के बावजूद वर्ष 2012 में दिगंबर की भी मौत हो गई।

उम्मीद थी कि पति की पेन्शन मिल जाएगी, लेकिन पता चला कि दिगंबर ने अपने सैन्य दस्तावेजों में भुवनेश्वरी का नाम दर्ज नहीं कराया है। नतीजा, दिगंबर की मौत के साथ ही पेन्शन भी हाथ से चली गई। अब भुवनेश्वरी के सिर पर खुद के साथ ही दोनों बेटों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी भी आ गई। लिहाजा, घोर निराशा के बावजूद उसने हल चलाना जारी रखा।

वर्तमान में भुवनेश्वरी नौ परिवारों का हल लगाने के साथ ही मनरेगा में भी मजदूरी करती है। दोनों बेटे हाईस्कूल व इंटर पास कर चुके हैं। हल लगाने के एवज में उसे प्रत्येक परिवार से तीन-चार सौ रुपये और अन्य जरूरत का सामान मिल जाता है। इसी संघर्ष के बदौलत उसने सिर पर चढ़ा काफी कर्ज भी उतार लिया है। कहती हैं, अब सवा लाख का कर्ज बाकी है, ईश्वर ने साथ दिया तो वह भी उतर जाएगा।

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