Tilu Rauteli birth anniversary : उत्तराखंड की वीरांगना तीलू रौतेली के बारे में जानिए, महज 22 साल की उम्र में सात साल तक लड़ा युद्ध
Tilu Rauteli birth anniversary देवभूमि गौरव गाथाओं से भरी पड़ी है। यहां की मातृशक्ति का धैर्य साहस और पराक्रमण इतिहास से लेकर वर्तमान तक नजर आता है। ऐसी ही एक वीरांगाना तीलू रौतेली की आज जंयती है।
नैनीताल, जागरण संवाददाता : Tilu Rauteli birth anniversary : देवभूमि गौरव गाथाओं से भरी पड़ी है। यहां की मातृशक्ति का धैर्य, साहस और पराक्रमण इतिहास से लेकर वर्तमान तक नजर आता है। ऐसी ही एक वीरांगाना तीलू रौतेली की आज जंयती है। जिनके साहस और शैर्य की चर्चा देशभर में होनी चाहिए थी उनके पराक्रम की कहानियां सूबे में सिमटकर रह गईं हैं। पिता, भाई और मंगेतर की शहादत का बदला लेने के लिए उन्होंने जिस पराक्रमण और शौर्य का परिचय दिया था, वैसी दूसरी मिशाल नजर नहीं आती। रानी लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, चांदबीबी, जियारानी जैसी पराक्रमी महिलाओं के साथ उनका सम्मान से लिया जाता है। तो चलिए जानते हैं कौन थी तीलू रौतेली और उनकी गौरव गाथा के बारे में...।
15 वर्ष की उम्र में सीख ली घुड़सवारी और तलवारबाजी
तीलू रौतेली का मूल नाम तिलोत्तमा देवी था। इनका जन्म आठ अगस्त 1661 को ग्राम गुराड़, चौंदकोट (पौड़ी गढ़वाल) के भूप सिंह रावत (गोर्ला) और मैणावती रानी के घर में हुआ। भूप सिंह गढ़वाल नरेश फतहशाह के दरबार में सम्मानित थोकदार थे। तीलू के दो भाई भगतु और पत्वा थे। 15 वर्ष की उम्र में ईडा, चौंदकोट के थोकदार भूम्या सिंह नेगी के पुत्र भवानी सिंह के साथ धूमधाम से तीलू की सगाई कर दी गई। 15 वर्ष की होते-होते गुरु शिबू पोखरियाल ने तीलू को घुड़सवारी और तलवार बाजी में निपुण कर दिया था। उस समय गढ़नरेशों और कत्यूरियों में पारस्परिक प्रतिद्वंदिता चल रही थी। कत्यूरी नरेश धामदेव ने जब खैरागढ़ पर आक्रमण किया तो गढ़नरेश मानशाह वहां की रक्षा की जिम्मेदारी भूप सिंह को सौंपकर खुद चांदपुर गढ़ी में आ गया। भूप सिंह ने डटकर आक्रमणकारियों का मुकाबला किया परंतु इस युद्ध में वे अपने दोनों बेटों और तीलू के मंगेतर के साथ वीरतापूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गए।
कत्यूरों से लड़ते हुए शहीद हो गए भाई, पिता और मंगेतर
कत्यूरियों का शासनकाल उत्तराखण्ड में आठवीं शताब्दी तक शासन रहा। उसके बाद गढवाल में पवार और कुमाऊं में कत्यूरियों के साथ चंद वंश का शासन रहा। धीरे-धीरे कुमांऊ में चंद वंश प्रभावशाली होते रहे और कत्यूरी इधर-उधर बिखरने लगे। उन्होंने चारों ओर लूटपाट और उत्पात मचाकर अशांति फैलाना शुरू किया। तीलू रौतेली के समय गढ़वाल एवं कुमाऊँ में छोटे-छोटे राजा, भड व थोकदारी की प्रथा थी। सीमाओं का क्षेत्रफल राजाओं द्वारा जीते गए भू-भाग से निर्धारित होता था । आज यह भू-भाग इस राजा के अधीन है तो कल किसी और राजा के अधीन। कत्यूरी राजा धामशाही ने गढवाल व कुमाऊं के सीमांत क्षेत्र खैरागढ (कालागढ के पास) में अपना अधिपत्य जमा लिया था। प्रजा इनके अत्याचारों से दुखी थी। कत्यूरी नरेश धामदेव ने जब खैरागढ़ पर आक्रमण किया तो गढ़नरेश मानशाह वहां की रक्षा की जिम्मेदारी भूप सिंह को सौंपकर खुद चांदपुर गढ़ी में आ गया। भूप सिंह ने डटकर आक्रमणकारियों का मुकाबला किया परंतु इस युद्ध में वे अपने दोनों बेटों और तीलू के मंगेतर के साथ वीरतापूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गए।
सात वर्ष तक युद्ध कर जीत लिए 13 किले
पिता भाई और मंगेतर की शहादत के बाद 15 वर्षीय वीरबाला तीलू रौतेली ने कमान संभाली। तीलू ने अपने मामा रामू भण्डारी, सलाहकार शिवदत्त पोखरियाल व सहेलियों देवकी और बेलू आदि के संग मिलकर एक सेना का गठन किया । इस सेना के सेनापति महाराष्ट्र से छत्रपति शिवाजी के सेनानायक श्री गुरु गौरीनाथ थे। उनके मार्गदर्शन से हजारों युवकों ने प्रशिक्षण लेकर छापामार युद्ध कौशल सीखा। तीलू अपनी सहेलियों देवकी व वेलू के साथ मिलकर दुश्मनों को पराजित करने हेतु निकल पडी। उन्होंने सात वर्ष तक लड़ते हुए खैरागढ, टकौलीगढ़, इंडियाकोट भौनखाल, उमरागढी, सल्टमहादेव, मासीगढ़, सराईखेत, उफराईखाल, कलिंकाखाल, डुमैलागढ, भलंगभौण व चौखुटिया सहित 13किलों पर विजय पाई। 15 मई 1683 को विजयोल्लास में तीलू अपने अस्त्र शस्त्र को तट (नयार नदी) पर रखकर नदी में नहाने उतरी, तभी दुश्मन के एक सैनिक ने उसे धोखे से मार दिया। हालांकि तीलू रौतेली पर कई पुस्तकें प्रकाशित की जा चुकी हैं तथा कई नाट्य मंचित भी हो चुके हैं, परन्तु इस महान नायिका का परिचय पहाड की कंदराओं से बाहर नहीं निकल पा रहा है।