Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    जिन बच्‍चों को दिख्‍ाता नहीं है, श्‍याम धनक ने उन्‍हें दिखाई जिंदगी की राह

    By Skand ShuklaEdited By:
    Updated: Sun, 27 Jan 2019 01:15 PM (IST)

    श्याम धानक दृष्टिहीन बच्चों को न सिर्फ उनकी अंधेरी जिंदगी से बाहर निकाला, बल्कि आज उनको समाज की मुख्यधारा से जोड़कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी दिलाया है।

    जिन बच्‍चों को दिख्‍ाता नहीं है, श्‍याम धनक ने उन्‍हें दिखाई जिंदगी की राह

    हल्द्वानी, जेएनएन : उन नौनिहालों को भी अभिव्यक्ति का अधिकार है, जो जी तो रहे हैं मगर सूनी जिंदगी। न तो उनके कोई सपने रह गए थे और न ही समाज उन दृ़ष्टिहीनों को अपनी नजरों से देख रहा था। इसके बावजूद श्याम धानक ने ऐसे 70 बच्चों को न सिर्फ उनकी अंधेरी जिंदगी से बाहर निकाला, बल्कि आज उनको समाज की मुख्यधारा से जोड़कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी दिलाया है। उनके द्वारा प्रशिक्षित कराए गए बच्चे सरकारी विभागों में तैनात हैं।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    बेटे की आंखों की रोशनी ने बनाया जीवट

    मूल रूप से अल्मोड़ा के रहने वाले श्याम धानक काफी पहले हल्द्वानी आकर बस गए थे। उनके बेटे अजय की बचपन में ही धीरेे-धीरे आंखों की रोशनी चली गई। कुछ समय बाद वह पूरी तरह से अंधेेपन का शिकार हो गया। इस पीड़ा ने श्याम धानक को झकझोरा और यहीं से शुरू हुई दृष्टिहीन बच्चों के लिए जीने की मुहिम। उन्होंने तमाम बड़े संस्थानों में बच्चे को दिखाया, मगर आंखों की रोशनी नहीं लौटी। इसके बाद वह खुद मजबूत बने और बच्चे को दिल्ली के एक इंस्टीटयूट से प्रशिक्षण दिलवाकर स्कूल में दाखिला करवाया। आज उनका बेटा हैदराबाद में काम कर रहा है। बेटे की आंखों की रोशनी न होने के दर्द ने उन्हें ऐसे बच्चों के लिए जीने को प्रेरित किया।

    चुनौती को स्वीकारा, बच्चों को सहारा

    शुरुआत में धानक ने नैनीताल रोड पर एक कमरा लेकर पहाड़ में अंधेपन का शिकार हुए बच्चों को सहारा दिया। यहां उन्होंने ऐसे 10-11 बच्चों को प्रशिक्षित किया। अच्छी पहल की सराहना करते हुए लोगों ने भी बढ़चढ़ कर आर्थिक रूप से उनका साथ दिया। टीचर भी रखे, मगर एक साल बाद यह ठप हो गया। इसके बाद उनकी मुलाकात तत्कालीन डीएम डॉ. राकेश कुमार से हुई। उन्होंने रुचि दिखाई तो हल्द्वानी के गौलापार मेंं उनको जगह मिल गई। इसके बाद कारवां बढ़ता गया। धीरे-धीरे समृद्ध लोगों ने भी इसमें सहयोग किया। 2003 में कुछ एक बच्चे आए। फिर 2007 से सर्वे कराकर पहाड़ के नौनिहालों को परिवार को समझाकर खोजकर लाया गया।

    ...और बढ़ता गया कारवां

    गौलापार में इस संस्था का नाम नेशनल एसोसिएशन फॉर द ब्लाइंड (नैब) है। 2009 तक नौ बच्चे यहां थे। बच्चों को ब्रेन लिपि में दक्ष बनाने के लिए बच्चों को रखा गया। लंबे संघर्ष के बाद आज 70 दृष्टिबाधित बच्चे यहां प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। कई बच्चे प्रशिक्षण प्राप्त कर स्कूल-कालेजों से पढ़कर रेलवे विभाग, पुलिस विभाग के साथ ही बैंकों में काम कर रहे हैं। श्याम का कहना है कि आज इस सेवा के लिए कई लोग डोनेशन देते हैं। जिससे इन बच्चों के रहने-खाने और शिक्षण सामग्री का खर्च निकलता है। श्याम धानक बताते हैं कि इस बार 17 बच्चे स्पेशल डीएलएड करने के लिए मुंबई गए हैं।

    यह भी पढ़ें : इनकी फोटोग्राफी की दुनिया है कायल, पद्मश्री से हुए हैं सम्मानित; जानिए

    यह भी पढ़ें : हल्द्वानी में होने वाले त्रिशक्ति सम्मेलन में आएंगे योगी आदित्‍यनाथ