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कुमाऊं के सबसे बड़े जौलजीवी मेले को 1962 के भारत-चीन युद्ध से लगा पहला झटका

भारत-नेपाल सीमा पर काली और गोरी नदियों के संगम स्थल जौलजीवी में लगने वाला मेला दो देशों की संस्कृति का प्रतीक है। फिर भी इस मेले में तीसरे देश के सामान की धमक रहती है।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Sun, 04 Nov 2018 04:09 PM (IST)Updated: Sun, 04 Nov 2018 06:38 PM (IST)
कुमाऊं के सबसे बड़े जौलजीवी मेले को 1962 के भारत-चीन युद्ध से लगा पहला झटका
कुमाऊं के सबसे बड़े जौलजीवी मेले को 1962 के भारत-चीन युद्ध से लगा पहला झटका

पिथौरागढ़ (जेएनएन) : भारत-नेपाल सीमा पर काली और गोरी नदियों के संगम स्थल जौलजीवी में लगने वाला मेला दो देशों की संस्कृति का प्रतीक है। फिर भी इस मेले में तीसरे देश के सामान की धमक रहती है। कभी तीन देशों की संस्कृति के प्रतीक रहे मेले में अब तीसरे देश का केवल सामान भर नजर आता है।

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भारत, नेपाल और तिब्बत (चीन)  के त्रिकोणात्मक सीमा पर स्थित धारचूला के प्रवेश द्वार जौलजीवी में विगत 114 सालों से मेला लगता आया है। इस व्यापारिक मेले की विशेषता तीन देशों की संस्कृति रही है। अस्कोट के पाल राजवंश के राजाओं ने क्षेत्र की दूरी देखते हुए काली और गोरी नदियों के संगम पर मेले का शुभारंभ किया था। इसके लिए प्रारंभ में आगरा, मथुरा, बरेली, मुरादाबाद, काशीपुर, रामनगर, हल्द्वानी से व्यापारियों से आग्रह किया गया। काली नदी पार नेपाल में भी मेला लगने लगा। उस समय तिब्बत स्वतंत्र था और भारत तिब्बत सीमांत स्थलीय व्यापार चरम उत्कर्ष पर था। इसे देखते हुए तिब्बत भी इस मेले का भागीदार बना। भारतीय भू भाग में तिब्बती व्यापारियों का बाजार भी सजता था।

तीन देशों की साझी संस्कृति का प्रतीक जौलजीवी व्यापारिक मेला कुमाऊं का सबसे बड़ा मेला हो गया। मेले की अवधि एक माह रहती थी। पहला झटका 1962 के भारत-चीन युद्ध से लगा। तब तिब्बत की भागीदारी समाप्त हो गई। तीस सालों तक तिब्बत मेले के परिदृश्य से गायब रहा। मेले में भारत और नेपाल ही रह गए। 1992 से एक बार भारत चीन सीमांत स्थलीय व्यापार प्रारंभ हुआ। धीरे-धीरे भारतीय व्यापारियों द्वारा तिब्बत व चीन से आयातित वस्तुएं इस मेले में पहुंचने लगीं। वर्तमान में तिब्बत की संस्कृति को नहीं परंतु मेले में तिब्बती सामान की धाक जम चुकी है।

नेपाल में होता है घोड़ों का व्यापार

जौलजीवी मेले में नेपाल में अभी भी घोड़ों का व्यापार होता है। आज भी नेपाल में भारतीयों द्वारा खरीदे गए घोड़े पूर्व की भॉति काली नदी तैराकर भारत लाए जाते हैं। नेपाल में बिकने आने वाले हुमला जुमला के घोड़े भारत के लोगों की पहली पसंद हैं। हुमला जुमला स्थान जौलजीवी से काफी दूर है। हुमला जुमला से घोड़ों को जौलजीवी पहुंचने में सात से आठ दिन लगते हैं। नेपाल में काली नदी किनारे घोड़ों की मंडी सजती है।

तिब्बती सामान की दुकानें होती हैं मेलार्थियों की पसंद

भारत चीन सीमांत स्थलीय व्यापार में तिब्बत से आयातित वस्तुएं बिकने के लिए सबसे पहले जौलजीवी मेले में पहुंचती हैं। 31 अक्टूबर को समाप्त होने वाले व्यापार में भाग लेने वाले व्यापारियों का सामान मध्य नवंबर तक धारचूला पहुंचता है। जौलजीवी मेला सरकारी तौर पर 14 नवंबर से प्रारंभ होता है। अलबत्ता भारत और नेपाल के स्थानीय लोग पूर्व की भांति मार्गशीर्ष संक्रांति से मेले में शिकरत करते हैं।

आजादी से पूर्व कस्तूरी भी बिकती थी मेले में

जौलजीवी मेला अपनी विशेषताओं के लिए चर्चित रहा है। आजादी से पूर्व इस मेले में कस्तूरी भी बिकती थी। बाद में प्रतिबंध के चलते बंद हो गई। नेपाल के घी की खुशबू और शहद की मिठास दूर -दूर के मेलार्थियों को खींच कर लाती थी।


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