भारत-नेपाल की साझी संस्कृति का प्रतीक जौलजीबी मेला इस बार होगा आयोजित, जानें इसका ऐतिहासिक महत्व
भारत-नेपाल की मित्रता व साझी संस्कृति का प्रतीक जौलजीबी मेला इस बार मार्गशीर्ष संक्रांति यानी 14 नवंबर से लगेगा। भारत की ओर से मेले में लगने वाली दुकानों का आवंटन 10 नवंबर को होगा। हालांकि अभी नेपाल प्रशासन की सहमति का इंतजार है।

संवाद सूत्र, जौलजीबी (पिथौरागढ़) : भारत-नेपाल की मित्रता व साझी संस्कृति का प्रतीक जौलजीबी मेला इस बार मार्गशीर्ष संक्रांति यानी 14 नवंबर से लगेगा। भारत की ओर से मेले में लगने वाली दुकानों का आवंटन 10 नवंबर को होगा। हालांकि अभी नेपाल प्रशासन की सहमति का इंतजार है।
जौलजीबी मेला पिछले साल कोविड के चलते नहीं हो सका था। इस बार भी मेले के आयोजन को लेकर संशय बना हुआ था, लेकिन शुक्रवार को धारचूला तहसील प्रशासन ने मेले में दुकानों के आवंटन की प्रक्रिया शुरू कर दी है। इससे व्यापारियों व स्थानीय लोगों में खुशी है। यह मेला भारत और नेपाल की सीमा तय करने वाली काली नदी के दोनों तरफ जौलजीबी कस्बे में लगता है। दोनों देशों के नागरिक एक-दूसरे के स्टालों पर जाकर खरीदारी करते हैं। दिन व रात दुकानें खुली रहती हैं और आवाजाही से पूरे क्षेत्र में चहलपहल रहती है।
मेलाधिकारी/एसडीएम धारचूला एके शुक्ला ने बताया कि दुकान आवंटन की प्रक्रिया 10 नवंबर से शुरू होगी। इस बार सीमांत की सभी ग्राम पंचायतों को भी मेले से जोडऩे की पहल की गई है। इसके तहत हर पंचायत को दो-दो सांस्कृतिक दल भी लाने को कहा गया है।
ऐतिहासिक महत्व समेटे है मेला
1871 में अस्कोट के पाल वंश के राजा पुष्कर पाल ने जौलजीबी में धार्मिक मेले का शुभारंभ कराया था। 1914 में अस्कोट पाल वंश के पांचवे राजा गजेंद्र पाल ने इसे व्यापारिक मेले का स्वरूप दिया। तब यही मेला दोनों देशों के नागरिकों के लिए जरूरी सामान की खरीद के लिए सबसे बेहतर जरिया था। जौलजीबी मेले को अंतरराष्ट्रीय स्वरू प मिला है। 1962 में भारत-चीन युद्ध से पूर्व भारत, नेपाल और तिब्बत के लोग इस मेले में पहुंचते थे। चीन के कब्जे के बाद अब तिब्बत की सहभागिता नहीं रही। हालांकि 1992 के बाद भारत-चीन व्यापार प्रारंभ होने से तिब्बती सामान इस मेले में खास आकर्षण बन रहा है। इधर, दो साल से कोविड के कारण भारत-चीन व्यापार भी नहीं हुआ है। ऐसे में जौलजीबी मेले को लेकर लोगों में उत्सुकता है।
20 दिन तक रोशन रहेगी सीमा
जौलजीबी मेले के शुरुआती 10 दिन का आयोजन सरकारी तौर पर होता है। अगले 10 दिन मेला कमेटी जिम्मा संभालती है। काली नदी के दोनों ओर हर तरह की दुकानें लगती हैं। इसमें भारत की ओर से करीब 450 और नेपाल की तरफ 50 स्टाल सजते हैं। नेपाल के स्टाल में जूते, तिब्बती सामान, शराब, घी, शहद आदि बिकता है। हुमला-जुमला के घोड़े नेपाल की ओर से खास आकर्षण रहते हैं। भारत के लोग नेपाल के खास माने जाने वाले हुमला-जुमला के घोड़े खरीदते हैं। भारत की ओर से रेडीमेड गारमेंट, बर्तन, रजाई-गद्दे, खाने-पीने की वस्तुएं, सीमांत के ऊनी वस्त्र, जड़ी-बूटी व स्थानीय उत्पाद छाए रहते हैं। इस मेले में करीब 30 से 40 करोड़ का कारोबार होता है।
सबसे लंबे झूला पुल से आवागमन
जौलजीबी पिथौरागढ़ जिला मुख्यालय से 64 और धारचूला से 27 किमी की दूरी पर स्थित है। जिले में काली नदी पर सबसे लंबे 167 मीटर झूला पुल से एक-दूसरे देश में आवाजाही करने का एक अलग ही रोमांच है। उत्तराखंड का संस्कृति विभाग देश भर के कलाकारों को इस मेले में प्रस्तुति के लिए आमंत्रित करता है। मेले का उद्घाटन भी भारत की ओर से होता है।
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