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    चंदवंश काल में वीरगति प्राप्त सैनिकों के नाम दी जाती थी भूमि, बनाये जाते थे रौत के मंदिर

    By Prashant MishraEdited By:
    Updated: Wed, 15 Dec 2021 08:33 PM (IST)

    वीरगति प्राप्त सैनिकों की याद में आज भी शौर्य गीत गाये जाते हैं। इतिहासकार प्रो अजय रावत ने उत्तराखंड के सांस्कृतिक इतिहास पर हाल में प्रकाशित पुस्तक में उत्तराखंड के इतिहास से जुड़े नवीनतम ऐतिहासिक प्रसंगों का उल्लेख किया है।

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    प्रो रावत लिखित यह उत्तराखंड की पहली किताब है, जो कुमाऊं गढ़वाल की संस्कृति पर शोध पर आधारित है।

    जागरण संवाददाता, नैनीताल। उत्तराखंड में सैन्य इतिहास सदियों पुराना है। यह परंपरा आज भी  खूब फलफूल रही है। कत्यूर, गोरखा व चंदवंश के काल में वीरगति प्राप्त शहीदों के स्वजनों को सम्मान दिया जाता था। चंदवंश में बकायदा वीरगति प्राप्त सैनिकों के नाम भूमि दी जाती थी, जहां पर उनकी याद में मंदिर स्थापित हुए। आज भी कुमाऊं के विभिन्न स्थानों पर रौत के थान या मंदिर हैं। वीरगति प्राप्त सैनिकों की याद में आज भी शौर्य गीत गाये जाते हैं। इतिहासकार प्रो अजय रावत ने उत्तराखंड के सांस्कृतिक इतिहास पर हाल में प्रकाशित पुस्तक में उत्तराखंड के इतिहास से जुड़े नवीनतम ऐतिहासिक प्रसंगों का उल्लेख किया है। 

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    प्रो रावत लिखित  यह उत्तराखंड की पहली किताब है,  जो कुमाऊं गढ़वाल की संस्कृति पर शोध पर आधारित है। प्रारंभ पाषाण युग की 18 हजार साल पहले से लेकर 1949 तक की यात्रा का वर्णन है।पाषाण युग की चित्रकला, उनके बर्तन आदि, विशेष रूप से मरने के बाद बाद जो वस्तुएं उनके लिए मृत जीवन में जरूरी होती हैं, उनका भी उल्लेख है। कुमाऊं व गढ़वाल के पहले राज्य वंश कत्यूर, उसकी स्थापत्य कला, कत्यूर के पतन के बाद कुमाऊं के चंदवंश व गढ़वाल के परमार राजवंश। उस दौर के आठवीं शताब्दी से 18 वीं शताब्दी तक कत्यूरी, चंद व परमार राजवंश के मंदिरों की स्थापत्यकला का विस्तार से वर्णन किया है।  इसके बाद यहां नेपाल के गोरखा राज स्थापित हुआ। गोरखा राज से संबंधित जो सांस्कृतिक मेले या लोकदेवता, जो नेपाल से लाये गए, जैसे पिथौरागढ़ के मोस्टमानु, उल्का देवी, पिथौरागढ़ की ही जात यात्रा। पहली बार किसी इतिहासकार ने अंग्रेजों की स्थापत्य कला का सटीक उल्लेख किया है। इसके मूल रूप में यहां के गिरिजाघर, महत्वपूर्ण इमारत और विद्यालय आदि में जो शेली का प्रयोग किया गया है।

    उत्तराखंड की जंगल संस्कृति तथा उससे जुड़े लोक उत्सव, हरेला, फूलदेई आदि त्योहारों का भी वर्णन किया है। प्रो रावत ने सैन्य परंपरा का खूबसूरती से किताब में विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। प्रो रावत के अनुसार चंदवंश के समय जो युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए, उन्हें अत्यधिक सम्मान दिया गया। उनके परिवारों को भूमि दी जाती थी। जिसे रौत कहते हैं। आज भी कुमाऊं में विभिन्न स्थानों पर रौत की भूमि है और उसमें वीरगति प्राप्त सैनिकों को लोकदेवता के रूप में पूजा जाता है। गढ़वाल में वीरगति प्राप्त सैनिकों के पवाड़े गाये जाते हैं। माधो सिंह भंडारी, तीलू रौतेली आदि के शौर्यगाथा गीत के रूप में गाई जाती है। ब्रिटिशकाल में दरबान नेगी पहले व्यक्ति , जिन्हें विक्टोरिया क्रॉस मिला जबकि भारत के सबसे युवा सैनिक गबर सिंह का भी उल्लेख है, जिसको सम्मान दिया गया। बलभद्र नेगी, जिन्होंने 19 वीं शताब्दी में गढ़वाल रेजिमेंट सेंटर की स्थापना में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। इसके अलावा किताब में पहाड़ के खानपान का भी जिक्र है।