Move to Jagran APP

पाल राजाओं के शासनकाल का ऐेतिहासिक धरोहर है जौलजीवी मेला

हिमालय की गोद से निकलने वाली सदानीरा काली व गोरी नदियों के संगम स्थल पर लगने वाला अंतरराष्ट्रीय जौलजीवी मेला अस्कोट के कत्यूर वंशीय पाल राजाओं के शासनकाल की एक ऐतिहासिक धरोहर है।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Wed, 14 Nov 2018 04:09 PM (IST)Updated: Wed, 14 Nov 2018 09:05 PM (IST)
पाल राजाओं के शासनकाल का ऐेतिहासिक धरोहर है जौलजीवी मेला
पाल राजाओं के शासनकाल का ऐेतिहासिक धरोहर है जौलजीवी मेला

गोविंद भंडारी (पिथौरागढ़) : हिमालय की गोद से निकलने वाली सदानीरा काली व गोरी नदियों के संगम स्थल पर लगने वाला अंतरराष्ट्रीय जौलजीवी मेला अस्कोट के कत्यूर वंशीय पाल राजाओं के शासनकाल की एक ऐतिहासिक धरोहर है। 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में अस्कोट के पाल राजाओं द्वारा शुरू किया गया यह मेला तीन-तीन देशों की व्यापारिक व सांस्कृतिक विरासतों का मिलन केंद्र रहा है। यह उत्तराखंड का एक मात्र ऐसा विशिष्ट मेला है जो दो देशों की अंतरराष्ट्रीय सीमा के दोनों ओर एक साथ आयोजित होता है।

loksabha election banner

इतिहासकारों के मुताबिक अस्कोट के पाल राजवंश के 105वीं पीढ़ी के राजा गजेंद्र पाल ने वर्ष 1914 में जौलजीवी मेले की शुरुआत की थी। उन दिनों आज की तरह जगह-जगह हाट बाजार नहीं थे। लोगों को रोजमर्रा की चीजों की खरीदारी के लिए सैकड़ों मील दूर अल्मोड़ा या टनकपुर जैसे शहरों को पैदल ही आना-जाना पड़ता था। इन दिक्कतों के मद्देनजर राजा गजेंद्र पाल ने अपनी रियासत के लगभग मध्य में पड़ने वाले काली व गोरी नदियों के संगम स्थल जौलजीवी में एक व्यापारिक मेले का आयोजन शुरू किया।

तिब्‍बत व नेपाल तक के व्‍यापारी पहुंचते हैं

मेले में दिल्ली, आगरा, बरेली, मथुरा, रामपुर, मुरादाबाद, काशीपुर, अल्मोड़ा आदि शहरों के अलावा पड़ोसी देश नेपाल व तिब्बत के व्यापारी अपनी दुकानें लेकर पहुंचने लगे। अपनी वर्षभर की आवश्यकता की छोटी-छोटी वस्तुओं की खरीदारी हेतु दूर-दूर के क्षेत्रों से लोगों की मेलों में भारी भीड़ उमडऩे लगी। देखते ही देखते मेले ने एक अंतरराष्ट्रीय स्वरू प ले लिया। तिब्बती ऊन के बने गरम कपड़े, नेपाल के हुमला-जुमला के घोड़े और भारतीय क्षेत्रों के स्थानीय उत्पाद जौलजीवी मेले की विशेष पहचान बन गए।

बरकरार है मेले की भव्‍यता

आज सौ वर्ष से अधिक के लंबे समय के बाद भले ही जौलजीवी मेले के भौतिक स्वरू प में खासा बदलाव नजर आता हो, लेकिन मेले की मौलिकता और भव्यता आज भी यथावत है। आज भी यह मेला, अस्कोट के पाल राजवंश के समृद्धशाली शासनकाल की मधुर यादों को ताजा करता है। 

भारत-चीन युद्ध के बाद लिया सरकारी मेले का रूप

1962 में भारत-चीन युद्ध के पश्चात जौलजीवी मेले के आयोजन की जिम्मेदारी सरकार ने अपने हाथों में ले ली। तब से मेलों में विभिन्न सरकारी विभागों के स्टाल भी लगने लगे। कालांतर में मेला समिति द्वारा मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन कराया जाने लगा।

यह भी पढ़ें : उत्‍तराखंड की यह तितली होगी भारत की सबसे बड़ी तितली, ट्रौइडेस मिनौस का रिकॉर्ड टूटा


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.