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    शैलेश मटियानी : बूचड़खाने तक में काम करने को विवश होने वाला वह यथार्थवादी लेखक

    आज ही के दिन यानी 14 अक्टूबर 1931 में अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना में जन्मे शैलेश मटियानी ने हाईस्कूल तक पढ़ाई की। माता-पिता का देहांत 12 वर्ष की उम्र में हो गया था। वह उस समय पांचवीं कक्षा में पढ़ते थे।

    By Skand ShuklaEdited By: Updated: Wed, 14 Oct 2020 05:29 PM (IST)
    14 अक्टूबर, 1931 में अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना में जन्मे शैलेश मटियानी ने हाईस्कूल तक पढ़ाई की।

    हल्द्वानी, गणेश जाेशी : शैलेश मटियानी की रचनाएं इतनी यथार्थवादी और अपने समय से आगे की थी कि समकालीन आलोचकों में उनका मूल्यांकन करने की समझ न थी। भारती समाज का वैसा यथार्थ शायद ही किसी हिंदी लेखक की कहानियों में आज भी देखने को मिले। प्रसिद्ध साहित्यकार पंकज बिष्ट ने यह पंक्तियां शैलेश मटियानी के लिए लिखी हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनकी रचनाधर्मिता कितनी प्रबल रही होगी। पर्वतीय जीवनशैली की तमाम संघर्षों को भी उन्होंने अपनी रचनाओं में जीवंतता के साथ उभारा है।

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    आज ही के दिन यानी 14 अक्टूबर, 1931 में अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना में जन्मे शैलेश मटियानी ने हाईस्कूल तक पढ़ाई की। माता-पिता का देहांत 12 वर्ष की उम्र में हो गया था। वह उस समय पांचवीं कक्षा में पढ़ते थे। अत्यंत निर्धन परिवार में जन्मे शैलेश को बचपन से ही तमाम विपदाए को झेलने को मजबूर होना पड़ा था। अल्मोड़ा में बूचड़खाने तक में कार्य करने को विवश होना पड़ा। इसके बाद दिल्ली, मुंबई, इलाहाबाद में संघर्ष करते रहे। बचपन से ही लेखक बनने की चिनगारी तमाम विपदाओं में भी जलती रही।

     

    बचपन से ही लेखक बनने की प्रबल इच्छा रखने वाले प्रसिद्ध साहित्यकार शैलेश मटियानी को तमाम लेखक गोर्की के समकक्ष व प्रेमचन्द्र से आगे का साहित्यकार भी बताने नहीं हिचकते हैं। उन्होंने कठिन संघर्षों में जीवन व्यतीत करते हुए समाज के दबे, कुचले, भूखे, नंगों पर मार्मिकता से यथार्थ चित्रण किया। हिंदी साहित्य में आंचलिक कथाकार के रूप में ख्याति अर्जित की।

     

    उन्होंने आजीवन ऐसी कलम चलाई की आम आदमी की पीड़ा का जीवंत चित्रण कर दिया। उनके 30 से अधिक उपन्यास, कहानियां, लेख हैं। उनकी रचनाओं में उपेक्षित, बेसहारा लोग कहानी के पात्र हैं। दलित जीवन को भी व्यापकता से उभारा है। उनके कहानी व पात्रों के नाम भी गोपुली, नैन सिंह सुबेदार, सावित्री, गफूरन आदि हैं। रचनाओं में गहरी मानवीय संवेदनाएं हैं। 24 अप्रैल, 2001 को उनका निधन हो गया। उनका परिवार हल्द्वानी के श्याम विहार में रहता है।

     

    अपने बारे में ये कहते थे मटियानी

    आर्थिक संकट से जूझते हुए बेहद सामान्य जीवन जीने वाले लेखक मटियानी ने मैं और मेरी रचना प्रक्रिया के आलेख में लिखा है, मैं जो कुछ भी हूं, जैसा भी हूं-इसे औरों से छिपाकर, या अपनी स्थिति पर कृत्रिमता का आवरण चढ़ाकर, जीने का प्रयास मैंने कभी नहीं किया और न व्यक्तिगत रूप से कभी भी एक साधारण मनुष्य से इतर स्वयं को समझा ही है। अपने को औरों से दुरा-छिपाकर रखना, या कुछ अलग-अलग रहने की बात सोचना भी मुझे अटपटा लगता है। मेरे साहित्य -सृजन के मूलाधार सदैव एकदम साधारण मनुष्य ही रहे हैं। अस्तु, उन्हीं के बीच रहकर, उन्हीं की तरह अकृत्रिम जीवन जीने में मुझे सुख मिलता है।

     

    कई सम्मान मिले

    हालांकि शैलेश ने हमेशा सम्मान और सरकारी लेखकों की कड़ी आलोचना की। यही कारण है कि उन्हें वह सम्मान नहीं मिला, जिसके वह हकदार रहे हैं। फिर भी उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार का संस्थागत सम्मान शारदा सम्मान, केडिया संस्थान से साधना सम्मान, उत्तर प्रदेश सरकार से लोहिया पुरस्कार से नवाजा गया था। साथ ही उनके लेखन पर भी शोध हो चुका है। उन्होंने जनपक्ष, विकल्प पत्रिकाओं का भी संपादन किया। साहित्यकार को कुमाऊं विश्वविद्यालय ने 1994 डीलिट् की मानद उपाधि से नवाजा था।

     

    ये हैं उपन्यास

    उगते सूरज की किरन, पुनर्जन्म के बाद, भागे हुए लोग, डेरे वाले, हौलदार, माया सरोवर, उत्तरकांड, रामकली, मुठभेड़, चन्द औरतों का शहर, आकाश कितना अनन्त है, बर्फ गिर चुकने के बाद, सूर्यास्त कोसी, नाग वल्लरी, बोरीवली से बोरीबंदर तक, अर्धकुम्भ की यात्रा, गाेपुली गफूरन आदि उपन्यास हैं।

     

    कहानी संग्रह

    पाप मुक्ति तथा अन्य कहानियां, सुहागिनी तथा अन्य कहानियां, अतीत तथा अन्य कहानियां, हारा हुआ, सफर घर जाने से पहले, छिंदा पहलवान वाली गली, भेड़े और गड़रिये, तीसरा सुख, बर्फ की चट्टानें, अहिंसा तथा अन्य कहानियां, नाच जमूरे नाच, माता तथा अन्य कहानियां, उत्सव के बाद, शैलेश मटियानी की प्रतिनिधि कहानियां आदि। तमाम लेखों का संग्रह व बाल साहित्य की रचनाएं भी है।