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    Harela 2022: पर्यावरण व कृषि संरक्षण का संदेश देता है उत्तराखंड का लोकपर्व हरेला

    By Prashant MishraEdited By:
    Updated: Sat, 16 Jul 2022 07:49 AM (IST)

    Harela 2022 हरेला पर्व पहाड़ के लोक विज्ञान से जुड़ा हुआ है। इसे बीच परीक्षण त्योहार भी कहा जा सकता है। हरेले के तिनके देख काश्तकार आसानी से अंदाज लगा लेते हैं कि बीच की गुणवत्ता कैसी है और इस बार किस तरह की फसल होगी।

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    Harela 2022: पर्वतीय क्षेत्रों की फसल के लिए उपयोगी होने से किसान हरेला को बहुत महत्व देते हैं।

    गणेश पांडे, हल्द्वानी : Harela 2022: उत्तराखंड के लोक पर्व हरेला के दिन कहे जाने वाले आशीर्वचन 'जी रये जाग रये, य त्यार य मास भेटनै रये..' में गांव-समाज की सुख-समृद्धि व खुशहाली की कामना की गई है। हरेला प्रकृति से जुड़ा पर्व है। चातुर्मास में हर तरफ हरियाली। प्रकृति में अद्भुत निखार व मन में अथाह उल्लास होता है। चातुर्मास की वर्षा पर्वतीय क्षेत्रों की फसल के लिए उपयोगी होने से किसान हरेला को बहुत महत्व देते हैं।

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    इस समय धान, मडुवा, भट व मक्का की फसल तेजी से बढऩे लगती है। घर के आसपास क्यारियों में शिमला मिर्च, बैंगन, तोरई, कद्दू, ककड़ी की बहार रहती है। फल पट्टी क्षेत्रों में सेब, नाशपाती, आड़ू, दाडि़म के पेड़ भी लदे होते हैं।

    जानवरों के लिए पर्याप्त घास। धिनाली यानी दही-दूध की बहार। संस्कृति कर्मी चंद्रशेखर तिवारी बताते हैं कि हरेला पर्व पहाड़ के लोक विज्ञान से जुड़ा हुआ है। इसे बीच परीक्षण त्योहार भी कहा जा सकता है। हरेले के तिनके देख काश्तकार आसानी से अंदाज लगा लेते हैं कि बीच की गुणवत्ता कैसी है और इस बार किस तरह की फसल होगी। हरेले की टोकरी में विभिन्न किस्म के अनाज बोना मिश्रित खेती के महत्व को प्रदर्शित करता है।

    हरेला पर्यावरण रक्षा व बारहमासा खेती को जीवंत बनाए रखने का प्रतीक पर्व है। अब लोग खेती-पशुपालन छोड़ पेंशन, मुफ्त राशन, मनरेगा, मजदूरी से गुजर करने लगे हैं। पहले परिवार आठ से 10 माह का अनाज पैदा कर लेता था।

    अब मुश्किल से दो से तीन माह का मिल पाता है। यही कारण है कि परंपरागत खेती व उनके बीज खत्म होने की कगार पर आ गए हैं। लोक के बीच उल्लास से मनाए जाने वाले हरेला को परंपरागत खेती बढ़ावा देने व प्रकृति को संरक्षित करने के तौर पर अपनाने की जरूरत है।

    मिट्टी के डिकारे बनाकर किया पूजन

    हरेला काटने से पहली शाम दाडि़म की टहनी से इसकी गुड़ाई होती है। शुक्रवार को घरों में मिट्टी से शिव-पार्वती, गणेश-कार्तिकेय से डिकारे यानी प्रतीक बनाए गए। हरेले के साथ चारों की पूजा की गई। शनिवार सुबह हरेला काटकर सबसे पहले इष्टदेव व अन्य देवताओं को अर्पित करने के बाद परिवार के सदस्यों को हरेला पूजा जाएगा।

    डाली व पौधे रोपने का चलन

    हरेला पर्व पर डाली-पौधे रोपने का चलन है। संस्कृति कर्मी डा. नवीन चंद्र जोशी बताते हैं कि इस दिन पेड़ की टहनी भी मिट्टी में रोपी जाए तो उसमें भी कलियां फूट पड़ती हैं। पहाड़ों में चारे व फलदार प्रजाति के पौधे लगाने के साथ खेतों में मेहल व पाती की डाली रोपने का भी चलन है। इसके पीछे विज्ञान है कि चातुर्मास में पर्याप्त वर्षा होने से पौधे आसानी से लग जाते हैं।

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    "आवा डाली लगावा-आवा जीवन बचावा" समस्त प्रदेश वासियों को लोकपर्व हरेला की हार्दिक शुभकामनाएं। आज अवकाश के दिन हम सभी उत्तराखंडी भाई-बहन जन-जन को वृक्षारोपण के लिए अवश्य प्रेरित करें। हमारी आने वाली पीढ़ी को शुद्ध वायु, स्वस्थ और स्वच्छ पर्यावरण मिले उसके लिए आज के दिन हम "एक व्यक्ति-एक वृक्ष" का संकल्प लें।🙏 - Trivendra Singh Rawat (@tsrawatbjp) 16 July 2022

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