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चैतोल पर्व के उल्‍लास से सराबोर हुई सोर घाटी, बहनों को भिटोला देने निकले देवता, जानिए अनोखे पर्व के बारे में

भगवान शिव का रूप माने जाने वाले लोक देवता सेराद्यौल गुरुवार को सोर घाटी में स्थित अपनी 22 बहनों (मां भगवती) को भिटौला (उपहार) देने निकले।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Fri, 19 Apr 2019 09:51 AM (IST)Updated: Fri, 19 Apr 2019 09:51 AM (IST)
चैतोल पर्व के उल्‍लास से सराबोर हुई सोर घाटी, बहनों को भिटोला देने निकले देवता, जानिए अनोखे पर्व के बारे में
चैतोल पर्व के उल्‍लास से सराबोर हुई सोर घाटी, बहनों को भिटोला देने निकले देवता, जानिए अनोखे पर्व के बारे में

पिथौरागढ़, जेएनएन : भगवान शिव का रूप माने जाने वाले लोक देवता सेराद्यौल गुरुवार को सोर घाटी में स्थित अपनी 22 बहनों (मां भगवती) को भिटौला (उपहार) देने निकले। छत्र और देवडोले के प्रतीक रूप में लोक देवता का गांवों मेें भव्य स्वागत हुआ। फूल-अक्षतों से उनकी पूजा-अर्चना कर क्षेत्र के कल्याण की कामना की गई। पूरी सोर घाटी में चैतोल की धूम मची हुई है जो कल यानी शुक्रवार तक जारी रहेगी। 
सीमांत जिले के पिथौरागढ़ क्षेत्र में चैतोल पर्व पूरे उल्‍लास से मनाया जाता है। यह पर्व चैत्र माह में भाइयों द्वारा अपनी बहनों को भिटौला देने के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। चैत्र चतुर्दशी को चैतोल पर्व का शुभारंभ होता है। पूर्णिमा को नगर के घंटाकरण में देव डोलों के मिलन के साथ समापन होता है। गुरुवार सुबह सोरघाटी के 22 गांवों में चैतोल पर्व की शुरुआत हुई। नगर से सटे विण गांव के तपस्यूड़ा मंदिर में सेराद्यौल देवता की पूजा - अर्चना की गई। दिन में दो बजे तक देवता का छत्र सजाया गया। 

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किसी भी स्‍ि‍थति में नहीं रोका जाता छत्र 
मंदिर परिसर से ढोल-नगाड़ों के साथ देवता का छत्र निकला। इस दौरान जयकारे के साथ छत्र विण से होकर देवलाल गांव पहुंचा। जहां देवलाल गांव से आए छत्र के साथ मिलन हुआ। इस वर्ष अशुद्धि के चलते देवलाल गांव से देवडौला नहीं उठा। इसकी जगह सिर्फ छत्र निकाला गया। किसी भी परिस्थिति में छत्र को नहीं रोका जाता। मखौली गांव, बस्ते, देकटिया, सेलोली, घुनसेरा गांव, गैठना, नैनी, सैनी होते हुए छत्र को कासनी के देवी मंदिर में पहुंचाया गया। छत्र को इन गांवों के भगवती मंदिरों में ले जाया गया। मान्यता के अनुसार शिव रूपी देवता अपनी बहनों को भिटौला देते हैं। गुरुवार की रात को कासनी के मंदिर में ही विश्राम होगा। शुक्रवार की सुबह कासनी से छत्र उठेगा। दिन में 11 अन्य गांवों में जाकर वापस तपस्यूड़ा लौटेगा। 

 

गांवों में पहुंचने के साथ ही बढ़ता रहा कारवां 
सेरादेवल मंदिर से उठी लोक देवता की छत्र जैसे जैसे आगे बढ़ती गई लोगों का कारवां भी बढ़ता गया। पहले दिन 11 गांवों में पहुंची छत्र में प्रत्येक गांव से लोग शामिल होते रहे। कुछ सौ लोगों के साथ निकले छत्र के अंतिम गांव कासनी पहुंचने तक हजारों लोग छत्र में शामिल होने के गवाह बने। हर गांव में बाबा सेराद्यौल का ढोल नगाड़ों, फूल- अक्षतों के साथ स्वागत हुआ। लोगों ने बाबा सेराद्यौल और मां भगवती के जयकारे लगाए। पर्व को लेकर लोगों में जबरदस्त उत्साह दिखा। 

सोशल मीडिया के जरिए देश दुनिया तक पहुंचा चैतोल 
सोशल मीडिया के जरिए सोर का चैतोल अब देश विदेश तक पहुंचा। क्षेत्र के युवाओं ने इस प्लेटफार्म के जरिए चैतोल का लाइव अपने दोस्तों के साथ शेयर किया। देश और दुनिया भर में काम कर रहे सोर घाटी के युवाओं ने अपने घर परिवार के लोगों के फोन के जरिए चैतोल को लाइव देखा और अपने संगी साथियों को इस पर्व की जानकारी दी। 

आज घंटाकरण में होगा देव डोलों का मिलन 
दो दिवसीय चैतोल मेले के दूसरे दिन घंटाकरण में कासनी गांव से आने वाले देव डोले के साथ ही ल्युन्ठूड़ा और घुनसेरा गांव से आने वाली देवी डोलों का मिलन होगा। इसी स्थान पर भगवान शिव का मंदिर हैं। घंटाकरण बाजार का मुख्य हिस्सा है। पहले दिन चैतोल में ग्रामीणों की भागीदारी ज्यादा रहती है। दूसरे दिन शहर की बड़ी आबादी भी इसमें शामिल होकर लोक देवी देवताओं का आर्शीवाद लेती है। 

मखोली गांव में अवतरित हुए देवडांगर 
सेरादेवल और देवलाल गांव से निकले छात का मखौली गांव के मंदिर प्रांगण में मिलन हुआ। इस दौरान छत्र में शामिल दो लोगों में देवडांगर अवतिरत हुए। देवडांगरों को लोगों ने कंधों पर उठा लिया और फूल अक्षतों से उनकी पूजा अर्चना की। देवडांगरों ने लोगों को आशीर्वाद दिया। इस दौरान हल्की बारिश भी हुई। लोगों ने इसे देवताओं का आशीर्वाद माना। 

900 साल पुरानी है चैतोल की परंपरा 
सोर घाटी में चैतोल पर्व की पंरपरा 900 साल पुरानी मानी जाती है, हालांकि इसका कोई लिखित इतिहास नहीं है। मान्यता है उत्तर कत्यूर काल 12वीं शताब्दी से लोग इसे मनाते आ रहे हैं। इससे कुछ पूर्व पिथौरागढ़ में बसासतें बनी। खेती की शुरुआत हुई। भूमिया देवताओं की स्थापना हुई और चैतोल पर्व अस्तित्व में आया। सामाजिक चिंतक बद्री दत्त कसनियाल का कहना है कि कत्यूर शासनकाल का कोई ठोस इतिहास नहीं है। चंद शासनकाल का ही इतिहास उपलब्ध है, लेकिन उसमें तमाम पर्वो को कोई उल्लेख नहीं है। इस पर अभी गहन शोध की जरूरत है। बता दें जिस तरह सोर घाटी में ढोल नगाड़ों के छत्र आदि के साथ डोले निकाले जाते हैं लोक देवताओं को याद किया जाता है उसी तरह गढ़वाल में भी नंदा राजजात यात्रा मनाई जाती है। इस तरह की धार्मिक यात्राएं लगभग पूरे उत्तराखंड में होती हैं। 

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