जल बचाने को रोपे बांज के 25 हजार पौधे
दीपक वशिष्ठ, हल्द्वानी : अभी हम प्यासे भले ही न मर रहे हों, लेकिन आने वाले समय में यह संकट नजदीक अ
दीपक वशिष्ठ, हल्द्वानी : अभी हम प्यासे भले ही न मर रहे हों, लेकिन आने वाले समय में यह संकट नजदीक आता दिख रहा है। हालात इस हद तक विकराल हो चुके हैं कि न तो किसानों को सिंचाई के लिए पानी है और न ही शहर में पेयजल के लिए। इसके लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। यह कहना है पर्यावरण प्रेमी चंदन सिंह नयाल का, जो जल बचाने के लिए अभी तक बांज (ओक) के 25 हजार पौधे रोप चुके हैं।
एक-दो दशक पहले तक हल्द्वानी के आसपास भाबर में तालाब व पहाड़ के ग्रामीण क्षेत्रों में नौले, चाल-खाल, धारा और झीलें पानी से लबालब रहती थीं। पहाड़ में इन सबमें पानी पर्याप्त मात्रा में रहने का सबसे बड़ा कारण बांज का पेड़ था। बांज का कुछ हिस्सा तो धधकते हुए जंगलों में स्वाहा हो गया और कुछ लोगों की आहूति चढ़ गए। जिसका बड़ा प्रभाव आज सूखते जलस्रोतों पर पड़ रहा है। भविष्य की चिंता करने वाले चंदन ने जलस्रोतों को रिचार्ज करने के लिए बांज के पेड़ लगाने की मुहिम छेड़ी है। मूलरूप से नैनीताल जिले के ओखलकांडा ब्लॉक नाई गांव निवासी चंदन सिंह नयाल का जंगलों से बचपन से लगाव रहा है। वह पांच सालों से समर्पित होकर बांज के जंगलों को बचाने की मुहिम में लगे हुए हैं। इसी क्रम में अभी तक वह भीमताल विस क्षेत्र के नाई, भूमका, मझेड़ा, लेटीबुंगा, चखुटा, ओखलकांडा आदि में 25 हजार बांज के पौधे लगा चुके हैं। सूख चुके गांव के 30 फीसद जलस्रोत
चंदन ने बताया कि उन्होंने रामगढ़, धारी और ओखलकांडा ब्लॉक के गांवों के प्राकृतिक जलस्रोतों पर शोध किया। जिसमें चौकाने वाले परिणाम सामने आए। इन ब्लॉकों के 30 फीसद प्राकृतिक जलस्रोत सूख चुके हैं। गांव में नौलों को सीमेंट से बनाने के विरोध में भी उन्होंने अभियान चलाया। इसके बाद गांव में मिट्टी और पत्थर से नौलों के जीर्णोद्धार का काम शुरू किया। बांज के 30 पौधे संरक्षित करते हैं 40 हजार लीटर पानी
रुड़की से बीएड कर रहे चंदन ने बताया कि बांज का पेड़ चौड़ी पत्ती का होता है। जो टूटकर गिरने के बाद बारिश के पानी को जमीन को सोखने में मदद करते हैं। इस पेड़ की लकड़ी न तो सड़ती है और न ही उसमें बदबू आती है। उन्होंने बताया कि एक बांज के 30 पेड़ करीब 40 हजार लीटर पानी संरक्षित करते हैं। जिसकी वजह से प्राकृतिक जलस्रोत रिचार्ज होने में मदद मिलती है। उत्तराखंड का हरा सोना है बांज
बाज (ओक) को उत्तराखंड का हरा सोना भी कहा जाता है। पर्यावरण, खेतीबाड़ी, समाज-संस्कृति से गहरा ताल्लुक रखने वाला बाज एक ऐसा वृक्ष है, जिसकी उपयोगिता अन्य वृक्षों से अधिक है। उत्तखण्ड में एक पर्यावरणीय गीत भी प्रचलित है। (बाँजै की जैड़यों को ठंडो पाणी) इसकी सूखी चौड़ी पत्तियों का आवरण जमीन को धूप की गर्मी से बचाता है। 63 स्कूलों में आयोजित कर चुके कार्यशाला
चंदन बांज के ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने के लिए 63 स्कूलों में कार्यशाला आयोजित कर चुके हैं। जिससे कि बच्चे पेड़ लगाने को प्रेरित हों और सूख चुके जलस्त्रोतों को फिर से रिचार्ज किया जा सके। घर में तैयार बांज की नर्सरी से बांटते हैं पौध
चंदन ने अपने गांव नाई में बांज, अखरोट, अमरूद, माल्टा, और आम की नर्सरी तैयार की है। इस नर्सरी से वह ग्रामीणों को मुफ्त में पौधे बांटते हैं। गांव में एक हेक्टेयर में फैला बांज का जंगल चंदन व ग्रामीणों द्वारा रोपे गए पौधों का जीता जागता उदाहरण है। 12 सौ से 35 सौ मीटर की ऊंचाई पर मिलता है बांज
मध्य हिमालयी क्षेत्र में बाज की विभिन्न प्रजातिया (बाज, तिलौंज, रियाज व खरसू आदि) 1200 मीटर से लेकर 3500 मीटर की ऊंचाई के मध्य स्थानीय जलवायु, मिट्टी व ढाल की दिशा के अनुरूप पाई जाती हैं। इसकी लकड़ी का घनत्व 0.75 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर होता है तो यह अति मजबूत और सख्त होती है इस पर फफूद और कीटों का असर नहीं होता है। साथ ही इसके जड़ें भी नहीं उखड़ती हैं। न ही लकड़ी फूलती है। बाज के पेड़ के फायदे
- इसकी हरी पत्तिया पशुओं के लिए पौष्टिक होती हैं।
- इसके तने के गोले से हल का निसुड़ सबसे अधिक पसंद किया जाता है।
- इसकी सूखी पत्तिया पशुओं के बिछावन लिए लिये उपयोग की जाती हैं, पशुओं के मल मूत्र में सन जाने से बाद में इससे अच्छी खाद बन जाती है।
- ईंधन के रूप में बाज की लकड़ी सर्वोत्तम होती है। अन्य लकड़ी की तुलना में इससे ज्यादा ताप और ऊर्जा मिलती है।
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