उत्तराखंड में लोक देवता के रूप में पूजे जाते हैं पितर, गढ़वाल व कुमाऊं में श्राद्ध की अनूठी परंपरा
उत्तराखंड में श्राद्ध एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है जहां यह सामूहिकता और सामाजिक सुरक्षा का प्रतीक है। गढ़वाल में इसे पुड़ख्या श्राद्ध और कुमाऊं में पातली का भात कहते हैं। श्राद्ध में धियाणियों (विवाहित बेटी) की मायके में उपस्थिति शुभ मानी जाती है जो परिवार के पुनर्मिलन का अवसर होता है। गढ़वाल में पितृकुड़ी स्थापित की जाती है जबकि कुमाऊं में वर्ष में दो श्राद्ध होते हैं।

शैलेंद्र गोदियाल, हरिद्वार। श्रद्धायाम् दीयते यत् तत् श्राद्धम् (श्रद्धा से जो कुछ दिया जाय, वही श्राद्ध है)। उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपराओं में पितर देवत्व का सजीव स्वरूप हैं। गढ़वाल हो या कुमाऊं, हर जगह पूर्वजों को देवताओं की तरह पूजा जाता है। पहाड़ में प्रचलित औखाण (कहावत) 'मामा सरि पौणु नी, पितर सरि देवता नी', इस विश्वास को व्यक्त करता है कि अतिथियों में मामा सर्वोपरि है और देवों में पितर।
यही कारण है कि किसी भी मांगलिक और धार्मिक कार्य में पितर पूजा अनिवार्य मानी जाती है। शुभकार्यों में पितरों का नांदी श्राद्ध (आबदेव) करने की परंपरा है। नांदी का मतलब है आशीर्वाद प्राप्त करना, लेकिन इसमें पिंडदान नहीं होता। देवभूमि में श्राद्ध किसी उत्सव से कम नहीं, यहां यह सामूहिकता, परस्पर सहयोग और सामाजिक सुरक्षा का प्रतीक भी है।
गढ़वाल में पुड़ख्या श्राद्ध, कुमाऊं में पातली का भात
गढ़वाल में पितृपक्ष को तिथ, पुड़खी श्राद्ध या पुड़ख्या कहा जाता है। परंपरा के अनुसार प्रत्येक पूर्वज की स्मृति विशेष नाम से जुड़ती है, जैसे 'दादा की पुड़खी' या 'नानी की तिथ'। पुड़खी-पुड़खा (तिमल या मालू के पत्तों से बने दोने) में पितरों के लिए सभी तरह का सूखा खाद्य पदार्थ और मौसमी फल सब्जी रखे जाते हैं। इसे आमानी या सीदा कहा जाता है। कुमाऊं में पुड़ (दोना) में अनार, अखरोट, सेब, ककड़ी, मूली, शहद, दही, घी रखा जाता है। श्राद्ध में पितरों के लिए बनाए गए भोज को पातली कहा जाता है। पातली के भात (चावल) को बच्चों, गाय और कौव्वे को परोसने की परंपरा है।
धियाणियों का पुनर्मिलन और सामाजिक ताना-बाना
श्राद्ध में धियाणियों (विवाहित बेटी) की मायके में उपस्थिति शुभ मानी जाती है। पितृपक्ष उनके मायके से जुड़ाव और परिवार के पुनर्मिलन का अवसर होता है। पितृपक्ष में कद्दू के फूल-पत्तों की सब्जी व छोली रोटी, चचिंडा, तोरी, मीठा करेला, आलू-भिंडी, रायता, चटनी, हलुवा, मीठी रोटी, नए अनाज का भात और पायस (खीर) बनाते हैं। इस अनुष्ठान में सामाजिक सहयोग का भाव भी झलकता है। जिन परिवारों के पास दूध देने वाले पशु नहीं होते, उन्हें पड़ोसी दूध-दही पहुंचाते हैं। रिश्तेदार नई सब्जियां और फल लाते हैं।
यह भी खास
तीन साल में भारुणी श्राद्ध: गढ़वाल के रुद्रप्रयाग और चमोली जिले में भारुणी श्राद्ध की परंपरा है, जो भरणी नक्षत्र पर किया जाता है। यह श्राद्ध तीन, पांच, सात साल में किया जाता है। इस दौरान पिंड व गोदान कर पितृऋण से मुक्ति की कामना की जाती है।
खास लोकश्रुतियां: लोकश्रुतियों के अनुसार पितृपक्ष में पितर घर आकर संतान के अर्पण की प्रतीक्षा करते हैं। इसलिए पितृपक्ष में हर दिन पुड़ी रखना अनिवार्य है। कहते हैं कि जीमण में अतिथि व बेटी को दी गई दक्षिणा व भोजन का अंश भी पितरों तक पहुंचता है। सोलह दिनों तक पितरों की ‘आं’ अर्थात मुख खुला रहता है और वे संतान के अर्पण की प्रतीक्षा करते हैं। भोजन से पहले घर-घर पितरों के लिए पत्ते-पुड़खी में पुड़ी अलग रखी जाती है, जिसे बाद में कौवे, गाय या कुत्ते को खिला दिया जाता है।
पितृकुड़ी में पितरों का वास
गढ़वाल में दिवंगतजनों की स्मृति के लिए पितृकुड़ी स्थापित की जाती है। यह एक छोटा-सा मंदिरनुमा घर होता है, जिसमें गंगा से लाया गया छोटा पत्थर पितृ देवता का प्रतीक बनाकर रखा जाता है। इसे चुपचाप लाया जाता है। पितृकुड़ी परिवार के पितरों का स्थायी निवास माना जाता है।
कुमाऊं में वर्ष में दो बार श्राद्ध और हवीक की परंपरा
कुमाऊं में वर्ष में दो श्राद्ध होते हैं। पहला मृत्यु तिथि पर होने वाला एकोदिष्ट श्राद्ध। दूसरा महालया पार्वण श्राद्ध, जो नवमी तिथि को छोड़ आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से अमावस्या तक किसी भी दिन किया जा सकता है। नवमी तिथि को केवल मातृ श्राद्ध होता है। कुमाऊं में श्राद्ध के पहले दिन उपवास रखने की परंपरा है, जिसे एकावक्त व्रत या हवीक कहते हैं। इस दिन सूर्यास्त से पहले एक बार सात्विक भोजन किया जाता है।
पितृ तीर्थ
उत्तराखंड में पितृ तर्पण के लिए बदरीनाथ में ब्रह्मकपाल, हरिद्वार की नारायणी शिला और देवप्रयाग जैसे तीर्थ अत्यंत पावन माने गए हैं। पुराणों के अनुसार भगवान की कमल स्वरूप मूर्ति का विभाजन भी इन्हीं स्थलों से जुड़ा है। पितृपक्ष में यहां श्राद्ध करने के लिए भीड़ जुटती है।
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