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    उत्‍तराखंड: वात्सल्य की छांव में खिलखिला रहा है बचपन

    By Sunil NegiEdited By:
    Updated: Sun, 06 Aug 2017 08:52 PM (IST)

    सरस्वती शिशु मंदिर के सेवानिवृत्त शिक्षक ओमप्रकाश भारद्वाज 91 साल की उम्र में भी 'वात्सल्य वाटिका' के लिए बरगद की छांव हैं।

    उत्‍तराखंड: वात्सल्य की छांव में खिलखिला रहा है बचपन

    हरिद्वार, [अनूप कुमार]: सरस्वती शिशु मंदिर के सेवानिवृत्त शिक्षक ओमप्रकाश भारद्वाज 91 साल की उम्र में भी 'वात्सल्य वाटिका' के लिए बरगद की छांव हैं। पिछले 42 साल से वह यहां ऐसे बच्चों की परवरिश कर रहे हैं जिनके माता-पिता सक्षम नहीं हैं अथवा बच्चे अनाथ हैं। बच्चों के प्रिय गुरुजी उनके बिना पलभर भी नहीं रहते। आश्रम में रह रहे 80 बच्चों के यही अभिभावक हैं। ये उन्हें पढ़ाते लिखाते हैं और शाम को एक घंटा उनके साथ खेलते भी हैं।

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    मूलरूप से मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) निवासी ओमप्रकाश वर्ष 1980 में सरस्वती शिशु मंदिर नजीबाबाद (उत्तर प्रदेश) से सेवानिवृत्त हुए। इसके बाद हरिद्वार से 11 किमी दूर बहादराबाद कस्बे में स्थित 'वात्सल्य वाटिका' आश्रम से जुड़ गए। हरिद्वार के कुछ समाज सेवियों ने यह आश्रम ऐसे बच्चों के लिए स्थापित किया है जिनके मां-बाप उनकी परवरिश में सक्षम नहीं हैं। 

    बाद में इसमें अनाथ बच्चों को भी शामिल किया गया। ओमप्रकाश बताते हैं कि 1990 में पत्नी के देहांत के बाद जीवन खाली सा लगने लगा। तीन बेटे और तीन बेटियां हैं जो आत्मनिर्भर हैं।' ऐसे में ज्यादा समय आश्रम में बीतने लगा। 1995 में वह पूरी तरह आश्रम के लिए समर्पित हो गए। 2014 से वह वात्सल्य वाटिका के प्रमुख की जिम्मेदारी भी निभा रहे हैं।

    आश्रम में इस वक्त 80 बच्चे हैं। इनकी आयु छह से 14 साल के बीच है। इनमें से 20 अनाथ हैं। आश्रम में ही कक्षा एक से पांचवीं तक स्कूल है। आगे शिक्षा के लिए बच्चों को दूसरे विद्यालय में भेजा जाता है। ओमप्रकाश बताते हैं कि वे हर रोज सुबह पौने पांच बजे उठकर बच्चों के साथ एक घंटे योगाभ्यास करते हैं। शाम को बच्चों के साथ एक घंटा खेलते हैं। 

    बच्चे प्यार से उन्हें गुरुजी कहते हैं। गुरुजी सुबह न केवल उन्हें तैयार करने में मदद करते हैं, बल्कि स्कूल से लौटने पर होमवर्क में भी मदद करते हैं। 

     

    20 बच्चे सिक्किम व पूर्वोत्तर से

    वात्सल्य वाटिका में रह रहे 80 बच्चों में से 20 सिक्किम समेत पूर्वोत्तर राज्यों के हैं। ये सभी अपने अभिभावकों की मर्जी से जीवन संवारने यहां आए हुए हैं। 

     

    राजकुमार, (आश्रम में पले-बढ़े दिल्ली की एक निजी कंपनी में आज कार्यरत) का कहना है कि  1998 में आश्रम पहुंचा। कैसे याद नहीं। गुरुजी मेरे माता-पिता हैं। 12वीं के बाद पॉलीटेक्नीक की। अब अपने पैरों पर खड़ा हूं। आश्रम मेरा घर है। जब भी छुट्टी मिलती है वहीं जाता हूं।

     

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