वैक्सीन लगवाने से आपको कोरोना संक्रमण के खिलाफ इम्युनिटी का मिलेगा सुरक्षा कवच
ऋषिकेश के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के निदेशक प्रोफेसर रविकांत ने बताया कि कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के बाद से वैक्सीनेशन में बहुत तेजी आई है लेकिन अभी भी काफी लोगों में वैक्सीन को लेकर भ्रम भय और ढेरों सवाल हैं।
ऋषिकेश, हरीश तिवारी। कोरोना की दूसरी लहर का कहर पूरे देश ने देखा, जिससे एक बात स्पष्ट हो गई कि संक्रमण से बचने का एक ही उपाय है और वह है ज्यादा से ज्यादा वैक्सीनेशन। हालांकि अभी भी तमाम लोगों के मन में वैक्सीन को लेकर भ्रम की स्थिति है। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि वैक्सीन ली जाए या नहीं। किसी न किसी रूप में अफवाह और गलत धारणा के चलते तमाम लोग (खासकर ग्रामीण इलाकों में) वैक्सीन लगवाने से बच रहे हैं। जबकि वैक्सीन को लेकर इस तरह के सारे भ्रम निराधार हैं। कोविड-19 वैक्सीन की पूरी खुराक लेने के बाद शरीर में कोरोना के खिलाफ रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है। जो कोरोना की गंभीर बीमारी और उससे मौत का खतरा काफी हद तक कम कर देती है। हम स्वयं को सुरक्षित कर सकें, इस बीमारी को परिवार के सदस्य, मित्र, संबंधी और सहर्किमयों सहित करीबी संपर्क वाले व्यक्तियों में फैलने से रोक सकें, इसके लिए वैक्सीन लेना बेहद जरूरी है।
पूरी तरह निराधार धारणा: टीका लगवाने से होने वाले दुष्प्रभाव का कोई भी संबंध टीके से बनने वाली रोग प्रतिरोधक क्षमता से नहीं है। ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है, जिन्होंने यह भ्रम पाल रखा है कि टीका लगने के बाद बुखार आने पर ही शरीर में कोरोना के प्रति रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है। यह बात पूरी तरह से निराधार है। अब तक किए गए किसी भी अध्ययन में इसकी पुष्टि नहीं हुई है।
कोरोना वैक्सीन का हल्का व गंभीर प्रभाव: कोरोना वैक्सीन के प्रभाव को दो भागों में बांटा गया है, हल्का और गंभीर। हल्के प्रभाव में वैक्सीन लगने के बाद वैक्सीन वाली जगह पर दर्द, सूजन या लाल पड़ जाना, बुखार आना, सिरदर्द और मांसपेशियों में दर्द होना शामिल है, लेकिन इससे घबराने की जरूरत नहीं है। इन हल्के लक्षणों से व्यक्ति के स्वास्थ्य पर गहरा असर नहीं पड़ता और जल्द ही ये परेशानी दूर भी हो जाती है। टीकाकरण के बाद यह सब होना सामान्य बात है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि यदि ये लक्षण दो दिन से ज्यादा रहते हैं तो आप तुरंत अपने नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र से संपर्क करें। इसी तरह गंभीर प्रभाव में पूरे शरीर पर चकत्ते (लाल-लाल दाने या उभार) हो सकते हैं, खुजली हो सकती है, सांस लेने में तकलीफ और बेहोशी भी आ सकती है।
ये गंभीर प्रभाव टीका लगने के 30 मिनट के भीतर ही दिखने लगते हैं। यदि आप इन 30 मिनट तक पूरी तरह स्वस्थ हैं तो इससे कोई भी गंभीर प्रभाव पड़ने की आशंका नहीं है। इन्हीं प्रभावों को देखते हुए वैक्सीन लगने के बाद व्यक्ति को करीब आधे घंटे तक टीकाकरण केंद्र में ही रुकना जरूरी होता है। जिससे अगर टीके के बाद एलर्जी का कोई लक्षण दिखाई देता है या तबीयत बिगड़ती है तो तत्काल इलाज के लिए अस्पताल भेजा जा सके या वहीं आवश्यक उपचार दिया जा सके। एक और सावधानी यह कि अगर आपको किसी दवा, वैक्सीन या खाने की चीज से एलर्जी है तो इसकी सूचना टीकाकरण अधिकारी को अवश्य दें। दो से तीन सप्ताह में बनती है एंटीबाडी: टीका लगने के बाद पर्याप्त एंटीबाडी बनने में दो-तीन सप्ताह का समय लगता है, लेकिन, इसका मतलब यह नहीं कि आपके शरीर में पहले से मौजूद रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाए और संक्रमण का खतरा अधिक हो जाए। फिर भी वैक्सीन लेने के बाद भी हमें कोविड-19 के बचाव के सभी उपाय अपनाने हैं। जैसे, मास्क पहनना, शारीरिक दूरी और हाथों को नियमित रूप से धोना।
दूसरी डोज 12 से 16 हफ्ते में ज्यादा असरदार: इंटरनेशनल मेडिकल जर्नल ‘लांसेट’ में प्रकाशित लेख ‘वैक्सीन: ए पूल्ड एनालिसिस आफ रैंडोमाइज्ड ट्रायल’ के मुताबिक 8597 ऐसे व्यक्तियों पर अध्ययन किया गया, जिन्हें कोविशील्ड वैक्सीन लगी। जब छह हफ्ते से कम अंतर पर दूसरी डोज दी गई तो वैक्सीन का असर 50 से 60 फीसद रहा, लेकिन, अंतर बढ़ाकर 12 से 16 हफ्ते करने पर असर 81.3 फीसद पाया गया। इसलिए केंद्र सरकार ने इन तथ्यों को ध्यान में रखकर कोविशील्ड वैक्सीन की दो डोज के बीच का अंतर 12 हफ्ते कर दिया है।
अधिकतम लाभ को तय समय पर लें दूसरी खुराक: दूसरी खुराक निर्धारित समय से पहले लेने का कोई नुकसान नहीं है, लेकिन इससे पर्याप्त रोग प्रतिरोधक क्षमता नहीं बन पाती है। इसलिए वैक्सीन का अधिकतम लाभ पाने के लिए यह जरूरी है कि दूसरी खुराक निर्धारित समय पर ही ली जाए।
वैक्सीन लेने के बाद भी संक्रमण का खतरा: कोविड-19 वैक्सीन की दोनों खुराक लेने के बाद हमारे शरीर में कोरोना के खिलाफ रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है, जो कि कोविड की गंभीर बीमारी और उससे मौत का खतरा काफी कम कर देती है। हालांकि, वैक्सीन लेने के बाद भी वायरस के किसी प्रारूप से संक्रमण हो सकता है। इसलिए यह आवश्यक है कि वैक्सीन लेने के बाद भी कोविड-19 से बचाव के नियमों का पालन करें।
बीमार लोगों में गंभीर संक्रमण होने का ज्यादा खतरा: हाई ब्लडप्रेशर, डायबिटीज, हृदय रोग, फेफड़े के रोग, मानसिक रोग, लिवर या किडनी रोग से पीड़ित व्यक्ति, जो लगातार दवा ले रहे हैं, वे वैक्सीन ले सकते है। वास्तव में इन्हें वैक्सीन की आवश्यकता सबसे अधिक है, क्योंकि कोरोना संक्रमण होने पर गंभीर रूप से बीमार होने की आशंका सबसे ज्यादा इन्हीं व्यक्तियों में होती है फिर भी वैक्सीन लेने से पहले आप अपने डाक्टर से सलाह अवश्य ले लें।
90 दिन बाद वैक्सीन लें संक्रमण से उबरे व्यक्ति: कोरोना संक्रमित व्यक्तियों को कोरोना के लक्षण पूरी तरह ठीक होने के 90 दिन बाद अगली खुराक लेनी चाहिए। यह रोग के खिलाफ एक मजबूत रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने में मदद करेगा। कोरोना संक्रमण से ठीक होने के बाद आप कोरोना से कब तक सुरक्षित रहेंगे, ये अभी भी पूरी तरह से सुनिश्चित नहीं हो पाया है और इस पर अध्ययन जारी है। वैक्सीन की दोनों खुराक लेने के बाद अगली खुराक लेनी पड़ेगी या नहीं, इस पर भी अनुसंधान जारी है। दोनों डोज एक वैक्सीन की यह जरूरी है कि पहली खुराक जिस वैक्सीन की लगी है, दूसरी खुराक भी उसी वैक्सीन की लगे। कोविन पोर्टल यह सुनिश्चित करने में मदद करता है कि एक लाभार्थी को दोनों खुराक एक ही वैक्सीन की मिलें। दोनों खुराक अलग-अलग वैक्सीन की ली जा सकती हैं या नहीं, इस विषय पर अभी अनुसंधान चल रहा है।
चाइल्ड केयर
बच्चा ठीक से सुन नहीं पाता : डा. देवेंद्र लालचंदानी, काक्लीयर इंप्लांट सर्जन, कानपुर केंद्र सरकार के नवजात एवं शिशु श्रवण जांच कार्यक्रम के अंतर्गत नवजात के सुनने की क्षमता की जांच जन्म लेने वाले दिन से लेकर एक साल तक निश्शुल्क की जाती है...
किस उम्र में कौन सी जांच कराएं
जन्म के एक माह के अंदर ओ.ए.ई. (ओटोएकास्टिक एमिशन) एवं ए.बी.आर. द्वारा स्क्रीनिंग। ’
अगर, ओ.ए.ई. एवं ए.बी.आर. जांच फेल आएं तो बेरा एवं ए.एस.एस.आर. द्वारा सुनिश्चित करना चाहिए। ’
छह माह तक जो बच्चे कम सुनते हैं, उन्हें सुनने की मशीन लगवा देनी चाहिए। ’
जो बच्चे अत्यधिक श्रवण दिव्यांगता का शिकार हैं, उनमें एक साल की उम्र में काक्लीयर इंप्लांट करा देना चाहिए। इससे ऐसे बच्चे भी सामान्य रूप से बोलना और सुनना शुरू कर देते हैं।
जांचें कराने में न करें देरी ’
जो बच्चे जन्म के समय देर से रोएं। ’
जिन्हेंं जन्म लेने के बाद पीलिया हो जाए। ’
जो तीन दिन से ज्यादा आई.सी.यू. में भर्ती हों और उन्हें ऑक्सीजन दी गई हो। ’
जिन नवजात शिशुओं की मां को गर्भावस्था के दौरान पीलिया या वायरस का संक्रमण जैसे गलसुआ आदि हो गया हो।
नवजात शिशुओं की श्रवण जांच: केंद्र सरकार ने श्रवण दिव्यांगता को गंभीरता से लेते हुए नवजात बच्चों की श्रव्यता की जांचों को अनिवार्य रूप से लागू किया है। ये जांचें अब भारत में आसानी से उपलब्ध हैं। केंद्र सरकार ने श्रवण दिव्यांगता के दूरगामी प्रभावों को देखते हुए नवजात एवं शिशु श्रवण जांच कार्यक्रम का एक प्रोटोकाल विकसित किया है, जिसमें नवजात के सुनने की क्षमता की जांच जन्म लेने वाले दिन से लेकर एक साल का होने तक निश्शळ्ल्क की जाती है।
छोटे बच्चों के लिए जरूरी जांचें: इसमें दो प्रमुख जांचें हैं, जो बच्चे के एक साल का होने तक करा ली जानी चाहिए। इन दोनों जांचों को तब किया जाता है, जब बच्चा सो रहा होता है और इन्हें करने में कुछ मिनट का ही समय लगता है। यह जांचें दर्द रहित होती हैं।
1. इवाक्ड ओटोअकास्टिक एमीशंस (ईओएई): इस जांच में एक प्लग बच्चे के कान में लगाया जाता है और ध्वनियां को भेजी जाती हैं। प्लग में लगा माइक्रोफोन ध्वनियों के प्रति सामान्य कान की ओटोअकास्टिक प्रतिक्रियाओं (उत्सर्जन) को रिकार्ड करता है। श्रवण दिव्यांगता होने पर कोई उत्सर्जन नहीं होता है।
2. आडिटरी ब्रेन स्टेम रिस्पांस (एबीआर): इसमें बच्चे की खोपड़ी पर वायर (इलेक्ट्रोड्स) चिपका दिए जाते हैं और छोटे-छोटे ईयरफोन की सहायता से कान में ध्वनियां भेजी जाती हैं। इस जांच में यह देखा जाता है कि ध्वनियों के प्रति मस्तिष्क क्या गतिविधि दिखाता है। ये दोनों इलेक्ट्रोफिजिकली टेस्ट अति विश्वसनीय हैं एवं तीन माह से कम उम्र के बच्चों में आसानी से हो जाते हैं। अगर इन जांचों से पता चलता है कि बच्चे की सुनने की क्षमता सामान्य नहीं है, तब बेरा (ब्रेनस्टेम इवोक्ड रिस्पांस आडियोमेट्री) और ए.एस.एस.आर. (आडिट्री स्टेडी स्टेट रिस्पांस) जांचें की जाती हैं। सुनने के हायर र्कािटकल सेंटर की जांच के लिए एम.एल.आर.(मिडिल लेटेंसी रिस्पांस) एवं एल.एल.आर. (आडिट्री लेट रिस्पांस) जांचें भी कराई जाती हैं।
श्रवण दिव्यांगता से पीड़ित बच्चे सुन नहीं पाते इसलिए भाषाई ज्ञान से वंचित होने के कारण मानसिक रूप से भी पिछड़ जाते हैं। यह एक बड़ी त्रासदी है, क्योंकि तीन साल की उम्र तक बच्चों में भाषा की समझ 85 फीसद तक विकसित हो जाती है। यदि इस उम्र तक पहुंचने से पहले ही बच्चों को उचित जांच व उपचार की सुविधा मिल जाए तो इनके लिए सामान्य जीवन जीना संभव हो सकता है।
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