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    हम प्रकृति की राह में खड़े होंगे तो वह उड़ा ले जाएगी, वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के निदेशक की चेतावनी!

    Updated: Sat, 09 Aug 2025 06:43 PM (IST)

    वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के निदेशक ने हिमालय की संवेदनशीलता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर विकास किया जाना चाहिए। धराली आपदा को मानवीय हस्तक्षेप का परिणाम बताते हुए उन्होंने कहा कि 90% तक निर्माण अवैज्ञानिक तरीके से हो रहा है। उन्होंने प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ बंद करने और रिवर व्यू के लालच में नदी किनारे निर्माण से बचने की सलाह दी।

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    वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के निदेशक डा. विनीत गहलोत. Jagran

    जासं, देहरादून। हिमालय को जानने और समझने की दिशा में बहुत अनुसंधान और अध्ययन किए जा चुके हैं। वैज्ञानिक आधार पर हिमालय के परिवर्तनकारी स्वभाव के कई आयामों से पर्दा हटाया जा चुका है, लेकिन यहां होने वाली घटनाएं कब होंगी और किस तीव्रता में होंगी, यह रहस्य हिमालय ने सिर्फ अपने भीतर समेटकर रखा है। हाल ही में उत्तराखंड के धराली में आई आपदा इसी का उदाहरण है। घटना के छह दिन बाद भी राहत-बचाव अभियान जारी है।

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    बताया जा रहा है कि 250 से अधिक लोग अब भी धराली, हर्षिल व गंगोत्री क्षेत्र में फंसे हुए हैं। वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के निदेशक डा. विनीत गहलोत कहते हैं संवेदनशील हिमालय के जो पहलू उजागर किए जा चुके हैं, यदि हम उनके आधार पर भी अपना भविष्य तय करें तो प्रकृति हमें नुकसान नहीं पहुंचाएगी, लेकिन यदि हम धराली की तरह उसकी राह में खड़े होते रहे तो वह उड़ाकर ले जाएगी।

    धराली की घटना को मानवीय हस्तक्षेप का नतीजा मानते हुए डा. गहलोत कहते हैं कि मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि 90 प्रतिशत तक भवनों का निर्माण अवैज्ञानिक तरीके से किया जा रहा है। साथ ही उनकी सलाह है कि सरकारें वैज्ञानिक रिपोर्टों के आधार ही यहां ढांचागत विकास करें। डा. गहलोत सीएसआइआर-राष्ट्रीय भूभौतिकीय अनुसंधान संस्थान (एनजीआरआइ), हैदराबाद में मुख्य विज्ञानी के पद पर पदस्थ रहे हैं।

    उन्होंने वर्ष 2015-2019 के दौरान पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के तहत राष्ट्रीय भूकंप विज्ञान केंद्र के निदेशक के रूप में भी कार्य किया। वह विशेष रूप से हिमालयी क्षेत्र में भूकंपीय अनुसंधान में शामिल हैं। उन्होंने पृथ्वी की सतह पर होने वाले परिवर्तनों को मापने व उनकी निगरानी के लिए पूरे भारत में एक बड़ा जीपीएस स्टेशन नेटवर्क स्थापित किया है।

    उन्हें भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (आइएनएसए) पदक, सीएसआइआर युवा विज्ञानी पुरस्कार, अन्नी तलवानी स्मारक पुरस्कार, भारतीय भूभौतिकीय संघ द्वारा एम एस कृष्णन पुरस्कार और भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला (पीआरएल) पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। हिमालय की संवेदनशीलता, यहां होने वाली प्राकृतिक घटनाएं, मानवीय हस्तक्षेप और सरकारी एजेंसियों की भूमिका पर दैनिक जागरण के वरिष्ठ संवाददाता सुमन सेमवाल ने उनसे विस्तार से चर्चा की। प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश:

    उत्तरकाशी में बादल फटने की घटना के बाद मची तबाही की वजह को लेकर जवाबदार एजेंसियों के अलग-अलग मत हैं। आपके अनुसार क्या वजह है?

    - उत्तरकाशी के धराली की आपदा को लेकर वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के साथ ही राज्य और देश की विभिन्न एजेंसियां अध्ययन कर रही हैं। वहां के मौजूदा हालात में अभी अध्ययन सिर्फ सेटेलाइट चित्रों के आधार पर ही संभव हो पा रहा है। इनमें भी जलप्रलय का कारण बनी खीर गंगा के ऊपरी क्षेत्र में लगातार बादल होने के कारण स्पष्ट जानकारी नहीं मिल पा रही है। इतना जरूर है कि ग्लेशियर क्षेत्र में जमा हजारों टन मलबे को बड़ी घटना ने ट्रिगर किया है। इस दिशा में अभी और अध्ययन किए जाने की जरूरत है। वाडिया निकट भविष्य में आपदा के स्पष्ट कारणों के साथ सभी के सामने होगा।

    इस आपदा को आप कितने प्रतिशत प्राकृतिक और कितने प्रतिशत मानवीय लापरवाहियों के दायरे में रखेंगे?

    - हिमालय में भूकंप से लेकर हिमस्खलन और बादल फटने जैसी प्राकृतिक घटनाएं होना सामान्य है। इसकी जानकारी सभी को है, लेकिन जिस तरह से रोड नेटवर्क के लिए बड़े स्तर पर संवेदनशील क्षेत्रों में पहाड़ों का कटान हो रहा है या संवेदनशील क्षेत्रों में अनियोजित निर्माण किए जा रहे हैं, उससे गंभीर आपदाएं जन्म ले रही हैं। स्पष्ट तौर पर कोई प्रतिशत तय करना संभव नहीं है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि काफी हद तक आपदाओं का जन्म मानव हस्तक्षेप से हो रहा है। यदि इनसे बचना है तो प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ बंद करनी होगी।

    माना जाता है कि हिमालय क्षेत्र में 40 प्रतिशत तक लैंडस्लाइड की घटनाएं उत्तराखंड में होती हैं। 18 अगस्त 1998 को मालपा में 300 मौतें और 18 जून 2013 को केदारनाथ में सैकड़ों मौत के बाद यह तीसरी बड़ी घटना है। धराली में भी बीते 10 साल में सैलाब की तीन बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं। प्रकृति द्वारा दिए जा रहे संदेश को विज्ञानी किस तरह से देख रहे हैं? इसे कैसे डीकोड कर रहे हैं?

    - वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान और अन्य वैज्ञानिक संस्थान निरंतर प्राकृतिक घटनाओं के कारणों की पड़ताल में जुटे हैं। विज्ञानी समय-समय पर यह भी बताते आ रहे हैं कि कौन सा क्षेत्र किस तरह की आपदा या प्राकृतिक घटना के प्रति संवेदनशील है। धराली आपदा को लेकर भी विज्ञानी पूर्व समय से सचेत करते आ रहे हैं और उत्तरकाशी में भटवाड़ी, हर्षिल जैसी घाटी में भू धसाव की स्थिति भी अध्ययन के साथ सामने लाई गई है। विज्ञानियों का कार्य सरकारी मशीनरी को प्रकृति के गूढ़ रहस्यों की जानकारी देना और सचेत करना है। इससे आगे का काम सरकार का ही है। सरकारी तंत्र के साथ समन्वय बनाकर काम किया भी जाता है।

    कहा जा रहा है कि रिवर व्यू की लालच में नदी के बिलकुल किनारे पहाड़ के सहारे मकान खड़े कर लिए गए हैं। यह कितना खतरनाक है, इसका कुछ नज़ारा हमने इस हादसे में देखा। आने वाले समय में इस बेतरतीब कंस्ट्रक्शन से और कितना खतरा है?

    - प्रकृति की राह में खड़े होने का मतलब सीधे तौर पर उसे असंतुलित करना है। रिवर व्यू का लालच हमेशा खतरनाक होता है। हो सकता है कि दशकों तक भी कोई नदी अपने मूल स्वरूप में न आए, लेकिन कभी भी वह अपने मूल इलाके को आपसे वापस ले सकती है। तब धराली की तरह तबाही सामने होगी। नदी के जलग्राही क्षेत्रों के साथ ही संवेदनशील घाटियों में निर्माण से बचना चाहिए। यही प्रकृति के साथ तालमेल के लिए जरूरी है। प्रकृति की सुंदरता हमारे लिए ही है, मगर उसका लाभ तब अधिक मिलेगा, जब हम उसकी राह से दूर खड़े होंगे।

    आपने जीपीएस स्टेशन सिस्टम का देशभर में एक बड़ा नेटवर्क स्थापित किया है, क्या उसके जरिए इस तरह की आपदाओं की पूर्व सूचनाएं नहीं मिल सकती हैं? क्या चक्रवात, बर्फबारी या भारी बारिश की तरह भूस्खलन या बादल फटने जैसी घटनाओं का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है?

    - आपदा की स्थिति में नागरिकों को अलर्ट किया जा सकता है, लेकिन भूस्खलन या बादल फटने जैसी घटनाओं का पूर्वानुमान मुश्किल है। फिर भी हम संवेदनशील क्षेत्रों को चिह्नित कर सरकार और नागरिकों को चेता सकते हैं। वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान इस दिशा में व्यापक स्तर पर काम कर भी रहा है। जैसे भूकंप की दिशा में अथक अध्ययन किए जा रहे हैं। रियल टाइम डाटा के लिए ब्रॉडबैंड सिस्मोग्राफ लगाए गए हैं। भूगर्भीय स्थिति के आकलन के लिए जीपीएस स्टेशन का नेटवर्क स्थापित किया गया है। इन अध्ययन के आधार पर संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान भी की गई है। ऐसे अध्ययन के अनुसार ही भविष्य की योजनाओं पर शत प्रतिशत अमल आवश्यक है।

    संवेदनशील क्षेत्रों को लेकर पूर्व सूचना प्रसारित कर लोगों को चेताया नहीं जा सकता है?

    - जैसा मैंने बताया कि बादल फटने या भूस्खलन का पूर्वानुमान आसान नहीं है। हालांकि, संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान और अलर्ट सिस्टम किसी पूर्वानुमान से कम नहीं है। जब हम भौगोलिक संवेदनशीलता के अनुरूप कार्य और व्यवहार करेंगे तो आपदा का खतरा अपने आप कम हो जाएगा।

    वाडिया संस्थान 1968 से हिमालय जोन पर अध्ययन या शोध कर रहा है। इसमें आपदा को निमंत्रण देने वाले कारणों और बचाव से जुड़े कितनी रिपोर्ट जारी की गई है?

    - स्पष्ट आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान ने हिमालय में घटित होने वाली लगभग सभी घटनाओं पर अध्ययन किया है। सरकार के साथ मिलकर काम किया जाता है और समय-समय पर रिपोर्ट भी साझा की जाती हैं। ग्लेशियर आधारित आपदाओं पर संस्थान के विज्ञानियों ने तमाम शोध किए हैं। इनका लाभ भावी योजनाओं के क्रियान्वयन में उठाया जाना चाहिए।

    क्या उन रिपोर्ट्स पर जवाबदारों द्वारा गौर नहीं किया गया?

    - मैं यह कहने की स्थिति में नहीं हूं कि जिम्मेदार एजेंसियों ने संस्थान की रिपोर्ट्स पर कितना ध्यान दिया है। हां, मैं दावे के साथ यह जरूर कह सकता हूं कि संस्थान द्वारा किए गए सभी प्रमुख अध्ययन और आंकड़े सरकारी एजेंसियों के साथ साझा किए जाते हैं। हम यह मानकर चलते हैं कि वैज्ञानिक अध्ययनों पर गौर किया जाता है। हालांकि, वर्तमान आपदा के मद्देनजर हम सरकार और जवाबदेह एजेंसियों से एक बार फिर प्रबल संस्तुति करते हैं कि वैज्ञानिक रिपोर्ट्स को आधार बनाकर ही ढांचागत विकास (इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट) किया जाना चाहिए। इन्हीं रिपोर्ट्स को विकास का आधार बनाना चाहिए।

    वर्तमान में उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में आधुनिक बसाहट को लेकर आपकी क्या राय है? कितने प्रतिशत मकान गलत ढंग से बनाए गए हैं?

    - यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि 90 प्रतिशत तक भवनों का निर्माण अवैज्ञानिक तरीके से किया जा रहा है। सुरक्षित भवन निर्माण के लिए नेशनल बिल्डिंग कोड की व्यवस्था है। हालांकि, इससे पहले स्थानीय नगर निकाय और विकास प्राधिकरण के नियम लागू होते हैं। उनकी अपनी निगरानी व्यवस्था भी होती है। उनका ही ठीक ढंग से पालन कर लिया जाए तो समस्या दूर हो जाएगी। अफसोस है कि धराली जैसी घटनाएं इस ओर इशारा करती हैं कि इनका ठीक से पालन नहीं हो रहा है। कहीं न कहीं कोई लापरवाही तो है। वैसे सिर्फ नियम बनाने या निगरानी से भी काम नहीं चलेगा। पहाड़ में रहने वाले लोगों के बीच व्यापक स्तर पर जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता भी है। आखिर ऐसी आपदाओं में पहाड़ पर रहने वाले लोगों और उनके स्वजन की जानें ही सबसे पहले संकट में होती है।

    प्रकृति के साथ ताल-मेल बिठाने के लिए सरकार, जनता और आपदा प्रबंधन के लिए जवाबदार एजेंसियों को क्या करना चाहिए?

    - यदि मानव सभ्यता को खुशहाल रहना है तो प्रकृति के साथ तालमेल बनाना ही होगा। सरकार के पास प्रकृति के संरक्षण को लेकर सभी आवश्यक अध्ययन और आंकड़े उपलब्ध हैं। इनके मुताबिक ही भवन निर्माण से लेकर विकास की परियोजनाओं को धरातल पर उतारना होगा। ऐसे में आपदा प्रबंधन से जुड़ी एजेंसियों की भूमिका और बढ़ जाती है। उन्हें आपदा पूर्व की तैयारियों पर अधिक ध्यान देना होगा।

    भूकंप के दौरान भी इसी तरह की तबाही होती है। जापान जैसे देशों ने जान-माल की क्षति से बचने के लिए पुख्ता उपाय तलाश लिए हैं। क्या वैसी कोई व्यवस्था भूस्खलन को लेकर भारत में नहीं हो सकती है?

    - भूकंप को लेकर भारत में बेहतर अध्ययन किए गए हैं। यहां तक कि संवेदनशील और अति संवेदनशील जोन तय किए गए हैं। जापान जैसे देश भूकंपरोधी तकनीकों का शत प्रतिशत पालन करते हैं। यदि हम भी उसी दिशा में आगे बढ़ें तो बड़े भूकंप की स्थिति में भी जानमाल के नुकसान को न्यून कर सकते हैं। भूस्खलन के लिए भी इसी तरह दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं। मसला यह है कि क्या हम उन सभी का शिद्दत से पालन हो रहा है। जिस दिन यह हो जाएगा, उस दिन हम जान-माल की क्षति को नगण्य कर पाएंगे।