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    Uttarakhand Panchayat Election: अब पंचायत के अखाड़े में सियासत की परीक्षा लेगा पहाड़

    Updated: Wed, 16 Jul 2025 02:13 PM (IST)

    नैनीताल हाईकोर्ट के फैसले के बाद उत्तराखंड में पंचायत चुनाव का रास्ता खुल गया है। मानसून की भारी बारिश के कारण चुनाव प्रक्रिया को लेकर सवाल उठ रहे हैं। राज्य निर्वाचन आयोग और सरकारी व्यवस्था के लिए यह एक इम्तिहान है जहां मतदाता राजनीतिक दलों का वजन तय करेंगे। प्रदेश में बारिश के कारण कई गांवों का संपर्क टूट गया है जिससे मतदान केंद्रों तक पहुंचना मुश्किल हो सकता है।

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    दशोली विकासखंड के जिला पंचायत वार्ड पिलंग के प्रचार के लिए जा रहे प्रत्याशी-समर्थक। जागरण आर्काइव

    मनोज झा, देहरादून। नैनीताल हाईकोर्ट की हरी झंडी के बाद उत्तराखंड में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव का रास्ता बेशक साफ हो गया हो, लेकिन इस बार जिस तरह मानसून झोली भरकर पानी बरसा रहा है और पहाड़ों में आए दिन कोई न कोई हादसा हो रहा है, उससे चुनाव प्रक्रिया के निर्विघ्न संपन्न होने को लेकर कर्ई सवाल भी आ खड़े हुए हैं। साथ ही आ खड़ा हुआ है राजनीतिक दलों के दम-खम का जमीनी परीक्षण।

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    मतलब कि मौसम तो राज्य निर्वाचन आयोग और सरकारी व्यवस्था का इम्तिहान लेगा, जबकि मतदाता दलों का वजन बताएंगे। यह ठीक है कि इन चुनावों में पार्टियों के सिंबल पर वोट नहीं पड़ते, लेकिन गांव की जमीन सियासी तापमान तो बता ही देती हैं।

    ऐसे भी उत्तराखंड मोटे तौर पर द्विदलीय दबदबे वाला प्रदेश है और यही कारण है कि गांव की प्रधानी से लेकर सांसदी तक हर कहीं आपको किसी न किसी रूप में भाजपा और कांग्रेस ही आमने-सामने खड़ी दिखाई देगी।

    राज्य गठन के बाद शायद यह पहला मौका है, जब झमाझम बरसात के बीच प्रदेश में पंचायत चुनाव होने जा रहे हैं। हर बार की तरह इस बार भी बरसात पहाड़ों के लिए परेशानियां लेकर आई है।

    प्रदेश के ज्यादातर गांव न सिर्फ पहाड़ों पर बसे हैं, बल्कि इन दिनों अतिवृष्टि, पहाड़ दरकने या भूस्खलन जैसी आपदा के चलते ग्रामीण क्षेत्रों में कई स्थानों पर आवागमन अवरुद्ध हुआ पड़ा है।

    रास्ते बंद होने से कई गांवों का जिला मुख्यालय या मैदानी इलाकों से संपर्क कट गया है। विद्यार्थी स्कूल नहीं जा रहे हैं तो मरीज अस्पताल। अभी बीते दिनों मार्ग बाधित होने के चलते सीमांत मुनस्यारी में जंगली मशरूम खाने से बीमार नानी-नातिन को समय से डाक्टरी सहायता न मिल पाने के चलते बचाया नहीं जा सका।

    मुख्य मार्गों पर तो ऐसी बाधा तुरंत हटा दी जाती है, लेकिन गांवों तक व्यवस्था की यह तत्परता पहुंचनी अभी बाकी है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि आगामी 24 और 28 जुलाई को होने जा रहे पंचायत चुनावों में पोलिंग पार्टियां गांव के बूथ तक और मतदाता अपने घरों से बूथ तक सकुशल कैसे पहुंचेंगे!

    राज्य निर्वाचन आयोग और सरकारी मशीनरी सब कुछ सकुशल संपन्न कराने के दावे भले कर रहे हों, लेकिन यह इतना आसान भी नहीं होगा।

    विरल आबादी के चलते एक तो सभी गांवों में पोलिंग बूथ नहीं होते। जहां बूथ होंगे, वहां तक पहुंचने के रास्तों पर बरसात ने मुश्किलों की बौछार कर रखी हैं। ऐसे में इस बार इस बात पर तमाम निगाहें होंगी कि मतदान का प्रतिशत कहां तक जाता है।

    बरसाती मौसम परेशानियों के साथ-साथ जहां पहाड़ों को नमी और ठंडक भी दे रहा है, वहीं पंचायत चुनावों के दांव-पेच सियासी तापमान भी बढ़ा रहे हैं।

    हाईकोर्ट में चुनावों का मामला फंसता दिखाई दिया नहीं कि राजनीतिक बयानबाजी जोर पकड़ने लगी। कांग्रेस ने सत्तारूढ़ भाजपा पर निशाना साधा कि ये सारी चुनावी उलझने और असमंजस जान-बूझकर पैदा किए जा रहे हैं, ताकि पंचायतों को भी अपनी मुट्ठी में किया जा सके।

    कांग्रेस का आरोप है कि सरकार अफसरों और चुनाव आयोग को अपने इशारे पर नचा रही है। भाजपा की ओर से जवाबी हमले भी जारी हैं और पार्टी नेताओं का कहना है कि लोकसभा, विधानसभा और नगरीय निकाय के चुनावों में बुरी तरह मुंह खाने के बाद अब त्रिस्तरीय पंचायतों से भी सफाया होने का डर कांग्रेस को दिन-रात सता रहा है।

    भाजपा की बात करें तो लोकसभा में क्लीन स्वीप के बाद विधानसभा चुनाव में लगातार दूसरी जीत और फिर नगरीय निकायों में एकतरफा विजय से उसके हौंसले बुंलद हैं।

    पंचायत चुनावों के रूप में भाजपा के लिए शायद यह पहला मौका आ रहा है, जब प्रतिनिधित्व के स्तर पर गांव से लेकर संसद तक उसका परचम लहरा सकता है। सांगठनिक स्तर पर बात करें तो निस्संदेह यहां भी भाजपा का हाथ ऊपर दिखाई दे रहा है।

    शहर से लेकर ब्लाक स्तर तक जिस तरह पार्टी की गतिविधियों सक्रिय रूप से चलती हुई दिखाई दे रही हैं, उससे तो ऐसा ही लगता है कि पंचायत चुनाव में भी कांग्रेस को नाकों चने चबाने पड़ सकते हैं।

    भाजपा के लिए अच्छा यह है कि पिछले दिनों उसके प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव भले ही निर्विरोध संपन्न हो गया हो, लेकिन इस बहाने पार्टी संगठन के कील-कांटे दुरुस्त करने का वांछित अवसर उसे जरूर मिल गया। सत्तारूढ़ होने के चलते संसाधन और प्रभाव की दृष्टि से भी भाजपा को स्वाभाविक रूप से बढ़त मिली हुई है।

    ऐसे में कह सकते हैं कि भाजपा के कार्यकर्ता गांवों तक भी दो-दो हाथ करने को मुस्तैद हैं। दूसरी ओर, आपसी खींचतान और प्रतिद्वंद्विता ने कांग्रेस संगठन को अंदर से एक हद तक छीज दिया है। एक के बाद एक पराजय से कार्यकर्ताओं का मनोबल और उत्साह भी कुछ ठंडा-सा नजर आता है।

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