अब सामने आएगी उत्तराखंड के जंगलों की हकीकत, ली जाएगी अत्याधुनिक सैटेलाइट तकनीक की मदद
Uttarakhand Forest Departments उत्तराखंड वन विभाग ने पिथौरागढ़ और चंपावत वन प्रभाग के लिए 10 वर्षीय कार्ययोजना बनाई है। इस योजना में सैटेलाइट तकनीक का उपयोग करके वनों की वास्तविक स्थिति का पता लगाया जाएगा। जैव विविधता संरक्षण सामुदायिक सहभागिता और पर्यटन विकास पर भी ध्यान दिया जाएगा। योजना में पौधारोपण और मौसम निगरानी जैसे उपाय भी शामिल हैं।

विजय जाेशी, जागरण देहरादून। उत्तराखंड में वन प्रबंधन की नई इबारत लिखी जा रही है। अत्याधुनिक सैटेलाइट तकनीक से प्रदेश के वनों की हकीकत जानी जाएगी और वन, वनस्पति व सामुदायिक संरक्षण की दिशा में प्रभावी कदम उठाए जाएंगे।
इसके लिए वन विभाग ने सीमांत जनपद पिथौरागढ़ और चंपावत में वनों के संरक्षण, संवर्धन और सामुदायिक सहभागिता के क्षेत्र में एक नई क्रांतिकारी शुरुआत हुई है। दोनों जनपदों की 10 वर्षीय पुनरीक्षित कार्य योजनाएं (2024-25 से 2033-34) तकनीकी नवाचार, जैवविविधता संरक्षण, सतत आजीविका, पर्यावरणीय अनुकूलन, और सामाजिक सरोकारों को केंद्र में रखकर तैयार की गई हैं।
केंद्रीय मंत्रालय की ओर से भी उक्त कार्ययोजना को हरी झंडी मिल गई है। ये योजनाएं आने वाले दशक में प्रदेश के वानिकी प्रबंधन को वैज्ञानिक, समावेशी और सुदृढ़ दिशा प्रदान करने की ओर एक कदम हाेगा।
उक्त दोनों वन प्रभागों में पहली बार इंडियन रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट आइआरएस-पी6 के लीनियर इमेजिंग सेल्फ स्कैनिंग सेंसर (एलआइएसएस-चार) सेंसर (5.8 एम रेजोल्यूशन) का प्रयोग किया गया है, जो पारंपरिक एलआइएसएस-तीन (23.5 एम) की तुलना में चार गुना अधिक स्पष्ट और सटीक है।
इससे वन प्रकारों और वन घनत्व के वर्गीकरण में उच्च स्तर की स्थानिक सटीकता, खंड/कक्ष स्तर पर सीमा निर्धारण और डेटा विश्लेषण संभव हाेगा। इसके अलावा पिथौरागढ़ में 2013 से 2021 के बीच किए गए अध्ययन के तहत 10899.82 हैक्टेयर क्षेत्र में घनत्व में वृद्धि, 13333.87 हैक्टेयर में कमी और 51129.06 हैक्टेयर क्षेत्र में स्थिति यथावत मिली है, जिसके आधार पर आगे की योजना तैयार की गई है। वहीं, चंपावत में इस अवधि में 14992.22 हैक्टेयर में घनत्व में वृद्धि, 11903.13 हैक्टेयर में कमी और 34976.20 हैक्टेयर क्षेत्र यथावत रहा।
यह विश्लेषण वन घनत्व परिवर्तन मैट्रिक्स के माध्यम से किया गया है, जिसके आधार पर नीतिगत निर्णय लेने संभव हुए। मुख्य वन संरक्षक अनुसंधान शाखा संजीव चतुर्वेदी ने बताया कि कार्ययोजना में पहली बार आरक्षित वनों से सटे गांवों में सामाजार्थिक सर्वेक्षण कर यह समझने का प्रयास किया गया कि ग्रामीण समुदाय किस हद तक वनों पर निर्भर हैं। यह पहल वन संसाधनों पर दबाव का आंकलन करने और भविष्य में नीति निर्माण व सहभागिता माडल विकसित करने में सहायक होगी।
जैव विविधता और फाइटोसोसियोलाजी का विश्लेषण
दोनों वन प्रभागों में प्रमुख वृक्ष प्रजातियों की समृद्धि, समता व प्रचुरता के आधार पर जैव विविधता सूचकांकों (सिंपसन, शैनन-वीनर) का विश्लेषण किया गया है। पिथौरागढ़ में प्रमुख प्रजातियां चीड़, बांज, खरसू, बुरांश, उत्तीस और चंपावत में चीड़, साल, काफल/रोहणी, अंयार, बांज हैं।
उच्च अनुवांशिक विविधता वाले क्षेत्रों को ''''नो-गो ज़ोन'''' का दर्जा
पिथौरागढ़ के हीरागुमरी, दारमा वैली, देवचूला, नारायण आश्रम और चंपावत के मायावती, श्यामलाताल जैसे क्षेत्रों को बीज स्रोत संरक्षण के रूप में चिह्नित किया गया है। इन क्षेत्रों में फील्ड जीन बैंक, इन-सीटू संरक्षण और बीज उत्पादन की व्यवस्था सुनिश्चित की जा रही है। इसके लिए इन क्षेत्रों को नो-गो जोन घोषित किया जाएगा।
साहसिक पर्यटन और पारिस्थितिकीय विकास
पिथौरागढ़ में आठ नए ट्रैकिंग रूट व पांच प्राकृतिक पर्यटन स्थल (ध्वज मंदिर, खुलिया, हनुमान मंदिर, पंचाचूली बेस कैंप) और चंपावत में 16 ट्रैकिंग मार्ग (मायावती, गोरखनाथ, श्यामलाताल आदि) विकसित किए जाएंगे। इससे स्थानीय युवाओं को रोजगार, पर्यटन को बढ़ावा और वन क्षेत्र से जुड़ाव को बल मिलेगा।
पौधारोपण, मियावाकी और आक्रामक प्रजातियों पर नियंत्रण
पिथौरागढ़ में 37 रोपण स्थल (255 हैक्टेयर), दो मियावाकी साइट तैयार किए जा रहे हैं। पौधारोपण की निगरानी भी सैटेलाइट इमेजरी से की जाएगी। उधर, चंपावत में 22 पौधारोपण स्थल (203 हैक्टेयर), 11 बांस रोपण (125 हैक्टेयर), आठ रिंगाल रोपण (80 हैक्टेयर), छह मियावाकी साइट चिहि्नत हैं। आक्रामक प्रजातियों जैसे लैटाना और कालाबांसा का नियोजित उन्मूलन व पुनः पौधारोपण की योजना भी इसमें शामिल हैं।
सांस्कृतिक उपवन और धार्मिक स्थल संरक्षण
कार्ययोजना के तहत पिथौरागढ़ के नौ पवित्र उपवन, चंपावत के 15 सांस्कृतिक स्थलों का दस्तावेजीकरण कर पर्यटन, आस्था और जैव विविधता को एक साथ जोड़ा गया है।
जलवायु परिवर्तन, मृदा विश्लेषण और मौसम निगरानी
प्रत्येक वन राजि में स्वचालित मौसम केंद्रों की स्थापना, मुख्य प्रजातियों की फेनोलाजिकल मानिटरिंग और जीआइएस आधारित मृदा स्वास्थ्य विश्लेषण को योजना में शामिल किया गया है। इससे जलवायु अनुकूलन और पौधारोपण की गुणवत्ता सुनिश्चित होगी।
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