आइए, पहाड़-सी पीड़ा की गहराई में झांकते हैं
मानसून के बाद उत्तराखंड में हुई तबाही से पहाड़ बेहाल है लेकिन फिर से उठ खड़ा होने की उसकी जिद बरकरार है। प्रदेश सरकार ने फौरी मदद की है पर आय के सीमित संसाधन को देखते हुए केंद्र सरकार से बड़ी आर्थिक मदद की आवश्यकता है। पर्यटकों की भारी संख्या से प्रदेश के संसाधनों पर बोझ बढ़ रहा है।

राज्य संपादक, मनोज झा। मानसून की विदाई की घड़ी आ गई है। चोटियों पर धीरे-धीरे धूप खिलने लगी है। अनाज के कोठारों में समाने के लिए झंगोरा, मंडुवा, चौलाई की फसलें कसमसा रही हैं। बुरांश की टहनियों व पत्तियों में ऐंठन आने लगी है और इन सबके बीच बारिश से बेहाल पहाड़ धीरे-धीरे फिर से अपनी कमर सीधी करने लगा है।
पिछले करीब डेढ़ महीने की मूसलधार ने पहाड़ को फिर उसी जगह ला खड़ा किया है, जहां से वह हर वर्षाकाल के बाद धीमे से ही सही, लेकिन पूरी हिम्मत और ताकत के साथ कदम आगे बढ़ाता है।
बारिश से होने वाली बदहाली पहाड़ की नियति है, तो बारंबार उठ खड़ा होना मानो उसकी जिद बन गई है। यह जिद जिजीविषा के साथ-साथ प्रकृति से प्रेम की भी है।
निश्चित रूप से इस जिद को जिंदा रखने के लिए अब आगे बढ़कर पहाड़ के हाथ थामने की आवश्यकता है। ...और हाथ थामने के लिए दिल खोलना जरूरी होता है।
ऐसे में प्रश्न है कि इस आपदा से पार पाते हुए पहाड़ फिर से सीना तानेगा कैसे? यह आश्वस्तकारी है कि पिछले दिनों उत्तराखंड में जहां भी प्राकृतिक आपदा का कहर बरपा, प्रदेश सरकार ने पीड़ितों को फौरी मदद देने में तत्परता दिखाई।
यहां तक कि मुख्यमंत्री आपदाग्रस्त क्षेत्रों में स्वयं पहुंचे। धराली में तो वह तीन दिनों तक वहीं डटे भी रहे। फिर भी शायद इतनाभर काफी नहीं है। प्रदेश में आय के सीमित संसाधनों और बड़े पैमाने पर हुए नुकसान पर गौर करें तो उत्तराखंड को इस समय बड़ी आर्थिक मदद की आवश्यकता है।
एक अनुमान के मुताबिक तीर्थाटन और पर्यटन के सिलसिले में प्रत्येक वर्ष उत्तराखंड में बाहर से आठ करोड़ लोगों की आवाजाही होती है। यह संख्या प्रदेश की कुल जनसंख्या की लगभग सात गुनी है।
स्पष्ट है कि प्रदेश के संसाधनों को प्रत्येक वर्ष सात गुना ज्यादा आबादी का बोझ उठाना पड़ता है। ऐसे में बेहाल उत्तराखंड को फिर से संवारने के लिए केंद्र सरकार को बिना समय गंवाए हाथ बढ़ाने की जरूरत है।
प्रदेश के कई जिलों में बरपी आपदा में जान और माल का बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ है। बस्तियों से लेकर कस्बों तक या तो मलबों में दब गए हैं या पानी में बह गए हैं।
उत्तरकाशी का धराली हो या चमोली की थराली, रुद्रप्रयाग का बसुकेदार हो या पौड़ी का बुरांसी या फिर बागेश्वर का पौंसारी, बाहर से आने वालों को तो आज यहां मलबे के बीच चंद दीवारें और छतें ही दिखेंगी।
मलबे के अंदर तो पूरा घर, कुनबा और बस्तियां दफन हैं। इन्हीं मलबों और बर्बादियों के बीच इन दिनों केंद्रीय दल यहां के प्रभावित क्षेत्रों में नुकसान का जायजा ले रहा है। संभवतः उसकी आकलन रिपोर्ट के आधार पर ही सहायता राशि तय होगी।
पंजाब और हिमाचल के बाद आपदाग्रस्त क्षेत्रों का निरीक्षण करने के लिए प्रधानमंत्री उत्तराखंड भी आ रहे हैं। कहा भी जाता है कि पहाड़ को समझने के लिए अंतर्दृष्टि चाहिए। पहाड़ जितना ऊंचा दिखता है, उसकी जड़ें उतनी गहराई में समाई रहती हैं।
आशा है कि उत्तराखंड के जख्म और उसकी पीड़ा को गहराई से महसूस किया जाएगा और तदनुरूप उसका उपचार भी किया जाएगा। ...और जहां तक पहाड़ के फिर से उठ खड़ा होने की बात है तो मानसून के मंद पड़ते ही उत्तराखंड के चारों धाम में चहल-पहल लौटने लगी है, बदरी-केदार में शंखध्वनियां गूंजने लगी हैं और गंगा-यमुना की मातृछाया देशभर के श्रद्धालुओं पर फिर से अपना आशीष बरसाने लगी है।
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