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    Uttarakhand Congress Crisis: उत्तराखंड कांग्रेस के सर्वमान्य नेता नहीं रहे हरीश रावत

    By Sanjay PokhriyalEdited By:
    Updated: Wed, 20 Jul 2022 12:31 PM (IST)

    Uttarakhand Congress Crisis अब हरीश रावत चुनाव लड़ने लायक भी नहीं रहे। उनकी सर्वोच्चता को मिल रही चुनौती से यह स्पष्ट है कि पार्टी में उनकी मुट्ठी से बाहर निकलने की छटपटाहट है और पार्टी के कई नेता उन्हें अब गुजरे जमाने का नायक मान रहे हैं।

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    Uttarakhand Congress Crisis: उत्तराखंड कांग्रेस के सर्वमान्य नेता नहीं रहे हरीश रावत। फाइल

    देहरादून, कुशल कोठियाल। सूत न कपास जुलाहों में लट्ठम लट्ठ। कुछ ऐसा ही हो रहा है उत्तराखंड कांग्रेस में। तमाम अनुमान एवं दावों के विपरीत कांग्रेस को 70 सदस्यीय विधानसभा में 19 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। इसी के साथ हर चुनाव में सत्ता बदलने की उत्तराखंड की परंपरा भी टूट गई। सामान्य तौर पर लगातार हार के बाद कोई भी राजनीतिक दल सांगठनिक और राजनीतिक स्तर पर गंभीर हो जाता है, लेकिन प्रदेश कांग्रेस है कि बदलती नहीं। गुटबाजी तथा टांग खिंचाई बदस्तूर चल रही है। जब अन्य राजनीतिक दल पंचायत, निकाय एवं लोकसभा के चुनाव के लिए होमवर्क कर रहे हैं तो कांग्रेस में अब भी भीतर व बाहर बेचैनी का आलम है।

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    पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता हरीश रावत यानी हरदा अब प्रदेश कांग्रेस में सर्वमान्य नहीं रहे। उनकी सदारत को चुनौती देने वालों की संख्या बढ़ी है और साहस भी। हाल में प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष एवं विधायक प्रीतम सिंह और हरक सिंह रावत ने उन्हें चुनौती दी है। हरीश रावत को पार्टी के भीतर ही गाहे बगाहे मिल रहीं इन चुनौतियों के पीछे स्पष्ट संदेश है, जिसे वह जानकर भी अनजान बने हुए हैं।

    पिछले दिनों कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह ने हरीश रावत के मुख्यमंत्रित्व काल में विधायक दल के बड़े हिस्से के भाजपा में जा मिलने के लिए उनको जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने हरदा को विधानसभा चुनाव में लगातार दूसरी हार के लिए भी कठघरे में ला खड़ा किया। यह बात वरिष्ठ कांग्रेस नेता को कचोट गई। बात इतनी बढ़ी कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को सर्वजनिक रूप से पार्टी के हित में युद्धविराम की सलाह देनी पड़ी। इसके बाद मामला शांत तो हुआ, लेकिन इसका समाधान नहीं हो पाया।

    वर्ष 2016 में हरीश रावत के कार्यकाल में कांग्रेस को जो झटका लगा, उसे हरीश रावत एवं पार्टी के अंदर उनके विरोधी अलग-अलग ढंग से परिभाषित करते रहे हैं। वर्ष 2016 में कांग्रेस के तत्कालीन दिग्गज विजय बहुगुणा और हरक सिंह रावत के नेतृत्व में नौ विधायक कांग्रेस सरकार के खिलाफ बिगुल फूंकते हुए भाजपा के साथ खड़े हो गए थे। सतपाल महाराज तो हरदा को कोसते हुए पहले ही भाजपा में जा चुके थे। बाद में रेखा आर्य एवं कुछ महीने बाद यशपाल आर्य ने भी हरीश रावत सरकार पर हमला बोलते हुए पुत्र समेत भाजपा की नाव में बैठना उचित समझा। वर्तमान में आर्य एवं हरक सिंह फिर से कांग्रेस में हैं। हरीश रावत के मुख्यमंत्रित्व काल में कांग्रेस दोफाड़ हुई और पार्टी के बड़े नेता विधायकों सहित भाजपा में चले गए। अल्पमत में आई कांग्रेस सरकार उस समय विधानसभा अध्यक्ष की शक्तियों के उपयोग के चलते बच गई तथा सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया।

    चुनाव हुए तो कांग्रेस केवल 11 विधायक ही जिता पाई। हरीश रावत मुख्यमंत्री रहते हुए भी दो-दो सीटों से चुनाव हार गए। कुल मिलाकर कांग्रेस को जो चोट वर्ष 2017 में लगी, वह उससे अभी तक नहीं उबर पाई है। प्रीतम और उनके समर्थक कांग्रेस को उस समय लगे घावों को ही कुरेद कर हरदा को पीड़ा पहुंचा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि हरीश रावत 2017 में कांग्रेस को लगी चोट को अपनी विजय गाथा के रूप में परिभाषित-प्रचारित करते रहे हैं, जबकि पार्टी में उनके विरोधी इसे शर्मकथा बता रहे हैं। हरदा का तर्क है कि भाजपा की तमाम कोशिशों एवं 10 विधायकों के भाजपा खेमे में चले जाने के बावजूद वह अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे। यह लोकतंत्र की विजय थी, इस पर प्रदेश के कांग्रेसियों को गर्व करना चाहिए। उनके विरोधियों का मानना है कि हरीश रावत के नेतृत्व में पार्टी विधायक दल में बड़ी बगावत हुई और विधानसभा अध्यक्ष की शक्तियों के उपयोग के कारण सरकार तो नहीं गिरी, लेकिन कांग्रेस को अभी तक न भर पाने वाला नुकसान हो गया। इस पर प्रदेश के कांग्रेसी गर्व क्यों करें?

    पार्टी पर हुई इस निर्णायक चोट को जो तर्को के साथ विजय गाथा साबित कर दे, वह हरीश रावत ही हो सकते हैं, उनकी यह क्षमता ही उन्हें कांग्रेस के अन्य नेताओं से अलग बनाती है। पांच साल पहले हुए कांग्रेस के इस विभाजन की गंभीरता का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि कांग्रेस में अब भी इस पर रार है और एक बड़ा तबका ईमानदारी से इसकी जिम्मेदारी तय कराना चाहता है। पार्टी के अंदर इस धारणा को मानने वाले भी कम नहीं हैं कि प्रदेश में कांग्रेस की मौजूदा बदहाली के लिए जिम्मेदार लोग आज भी पार्टी के सुप्रीम लीडर हैं।

    कांग्रेस के भीतर अब यह आवाज उठने लगी है कि अगर कांग्रेस नेतृत्व ने वर्ष 2016 में प्रदेश में कांग्रेस की बड़ी टूट व इसके बाद हुई बुरी हार पर मंथन किया होता और जिम्मेदारी तय की होती तो इस बार प्रदेश में परिस्थितियां अनुकूल होने के बावजूद दोबारा शर्मनाक हार नहीं होती। रावत विरोधी खेमा यह प्रश्न उठा रहा है कि इस बार भी विधानसभा चुनाव की कमान उन्हीं को क्यों सौंपी गई, जो पांच साल पहले कांग्रेस को निम्न स्तर पर ले गए थे।

    हरीश रावत को प्रदेश में चुनौती देने वालों की संख्या अब बढ़ती जा रही है। इसमें हरक सिंह रावत जैसे नेता भी शामिल हैं, जो कि विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा से बर्खास्त होने पर हरीश रावत से ही माफी मांग कर कांग्रेस में लौटे थे। हरक सिंह ने स्पष्ट कह दिया है कि हरदा अब आशीर्वाद देने की स्थिति में पहुंच गए हैं। अब वह चुनाव लड़ने लायक भी नहीं रहे। उनकी सर्वोच्चता को मिल रही चुनौती से यह स्पष्ट है कि पार्टी में उनकी मुट्ठी से बाहर निकलने की छटपटाहट है और पार्टी के कई नेता उन्हें अब गुजरे जमाने का नायक मान रहे हैं।

    [राज्य संपादक, उत्तराखंड]