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उत्तराखंड: अतिक्रमण की बिसात पर शहर की 'सियासत', जानें- कब्जों पर क्या थे निगम के तर्क

दून को उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी बने 20 साल गुजर चुके हैं लेकिन हैरानी वाली बात यह है कि प्रदेश में सरकार किसी दल की भी रही हो सभी ने दून के सौंदर्यीकरण के बजाय इसके बदरंग होने में साथ दिया।

By Raksha PanthriEdited By: Published: Fri, 30 Jul 2021 11:25 AM (IST)Updated: Fri, 30 Jul 2021 11:25 AM (IST)
उत्तराखंड: अतिक्रमण की बिसात पर शहर की 'सियासत', जानें- कब्जों पर क्या थे निगम के तर्क
अतिक्रमण की बिसात पर शहर की 'सियासत', जानें- कब्जों पर क्या थे निगम के तर्क।

अंकुर अग्रवाल, देहरादून। दून को उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी बने 20 साल गुजर चुके हैं, लेकिन हैरानी वाली बात यह है कि प्रदेश में सरकार किसी दल की भी रही हो, सभी ने दून के सौंदर्यीकरण के बजाय इसके बदरंग होने में साथ दिया। साल-दर-साल के साथ ही यहां वोटों की आड़ में सरकारी जमीनों पर अतिक्रमण की बिसात बिछाई जाती रही। क्या कांग्रेस और क्या भाजपा, लोकसभा-विधानसभा चुनाव हो या निकाय चुनाव, हर किसी ने सरकारी भूमि पर वोटबैंक की फसल उगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वजह साफ है कि वर्ष 2007-08 के सर्वे में अतिक्रमण का जो आंकड़ा 11 हजार को पार कर गया था, आज उसके 22 हजार तक पहुंचने का अनुमान है।

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यह कब्जे नगर निगम की भूमि से लेकर सिंचाई विभाग के अधीन नदी-नालों समेत प्रशासन की भूमि पर किए गए हैं। इस बात को कहने में भी कोई गुरेज नहीं कि नेताओं ने अपनी शह पर न केवल सरकारी जमीनों पर कब्जे कराए, बल्कि उन्हें संरक्षण देने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। नगर निगम की ही बात करें तो राज्य गठन के समय निगम के पास 780 हेक्टेयर से अधिक की भूमि थी, जो आज 250 हेक्टेयर से भी कम रह गई है। इतना ही नहीं रिस्पना-बिंदाल नदी, जिसकी चौड़ाई कभी 100 मीटर से ज्यादा होती थी, आज वह 20 से 25 मीटर चौड़े नाले में तब्दील हो गई है। दर्जनों नालों का तो अस्तित्व ही समाप्त हो गया है।

150 से अधिक मुकदमे, पैरवी पर ध्यान नहीं

वैसे तो निगम की करीब 540 हेक्टेयर भूमि पर कब्जे किए गए हैं, फिर भी चंद मामलों में निगम प्रशासन ने कार्रवाई करने का साहस दिखाया। लगभग 150 मुकदमें इन प्रकरणों के लंबित हैं। गंभीर पहलू यह कि निगम प्रशासन इन कब्जों को छुड़ाने के लिए कोर्ट में प्रभावी पैरवी नहीं कर पाता व वकीलों के पैनल का मानदेय कम होने का हवाला दिया जाता है। जबकि सच्चाई सभी को मालूम है कि जिन नेताओं को आमजन चुनता है, वही शहर के बड़े वर्ग को किनारे कर सिर्फ अतिक्रमणकारियों को शह देने में दिलचस्पी दिखाते हैं।

कब्जों पर यह थे निगम के तर्क

-ब्रह्मावाला खाला में निगम की 72 बीघा जमीन पर कब्जा है, जो वर्ष 2000 से पहले का है। कांग्रेसी नेता अतिक्रमण को तोड़ने नहीं दे रहे।

-साईं मंदिर के ट्रस्टी ने निगम की भूमि पर कब्जा कर कमरे बना दिए हैं। निगम अब इनका किराया वसूल कर रहा है।

-राजपुर रोड पर ओशो होटल के पीछे की जमीन नॉन जेडए की है, नगर निगम का उस पर हस्तक्षेप नहीं।

- विजय पार्क में निगम की भूमि पर कब्जे को लेकर संबंधित के खिलाफ मुकदमा दर्ज है, यह कब्जा वर्ष 1989 का बताया जा रहा है।

-राजपुर रोड पर जसवंत मॉर्डन स्कूल के पीछे की जमीन भी नॉन जेडए की है।

-दौलत राम ट्रस्ट की भूमि नगर निगम के नाम दर्ज नहीं है, इसके अधिग्रहण का अधिकार जिला प्रशासन के पास है।

-अनुराग नर्सरी चौक पर एक कॉम्पलेक्स निगम की जमीन पर बनाया गया है, जिसे हटाना प्रस्तावित है।

-हाथीबड़कला में एक अपार्टमेंट का निर्माण अवैध रूप से निगम की भूमि पर किया गया है, इसे भी हटाया जाना प्रस्तावित है।

-रिस्पना पुल के पास एक व्यक्ति का निर्माण ग्रामसभा के समय का है।

-पटेलनगर थाने के पीछे निगम की मजीन पर कब्जे को लेकर मामला हाई कोर्ट में लंबित है।

-पटेलनगर क्षेत्र में लालपुल के पास बिंदाल नदी किनारे की बस्ती वर्ष 1984-89 के बीच बसी थी। इस भूमि पर बागड़िया समुदाय के कुछ ही लोग रह रहे हैं।

अदालत के डर से हटा अतिक्रमण

राज्य गठन के बाद से न केवल दून की आबादी तेजी से बढ़ी, बल्कि यहां आवासीय भवनों से लेकर व्यापारिक प्रतिष्ठान, वाहनों की संख्या में भी इजाफा हुआ। इस सब के बाद सड़कों की चौड़ाई बढऩे की जगह कम होती गई। राजनीतिक संरक्षण में सड़कों पर भी कब्जा हो गया। वर्ष 2019 में हाईकोर्ट ने कड़े आदेश देकर अधिकारियों को जिम्मेदार बनाया तो इसका असर दिखा भी और बड़े पैमाने पर सड़कों से अतिक्रमण हटाए गए। हालांकि प्रेमनगर एवं कुछ अन्य इलाकों में नेताओं के अतिक्रमण अभियान के खिलाफ खड़े होने से इस पर ब्रेक लग गया।

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