दोनों पैरों से दिव्यांग को नौकरी के लिए ''दौड़ा'' रहा विभाग, कोर्ट से मिला इंसाफ; फिर भी नहीं सुन रही सरकार
उत्तराखंड लोक सेवा आयोग ने देहरादून के महावीर बमराड़ा को जो दोनों पैरों से दिव्यांग हैं परीक्षा पास करने के बावजूद नौकरी देने से इनकार कर दिया। आयोग ने 2011 के शासनादेश का हवाला दिया जिसके अनुसार केवल एक हाथ या पैर से दिव्यांग ही पात्र हैं। उच्च न्यायालय ने बमराड़ा के पक्ष में फैसला दिया लेकिन फिर भी नियुक्ति नहीं हुई।

सुमन सेमवाल, देहरादून। लगता है दोनों पैरों से दिव्यांग व्यक्ति सरकार की नजर में दिव्यांग नहीं है। तभी तो भर्ती परीक्षा पास किए जाने के बाद दोनों पैरों से दिव्यांग देहरादून निवासी महावीर बमराड़ा को दिव्यांग कोटे में नौकरी देने से इनकार कर दिया गया है।
इस संवेदनहीनता पर जब महावीर ने उत्तराखंड लोक सेवा आयोग से आरटीआइ में जानकारी मांगी तो वेबसाइट पर वर्ष 2011 का एक शासनादेश दर्ज कर दिया गया। जो यह कहता है कि उत्तराखंड की सेवाओं में एक हाथ या एक पैर से दिव्यांग अभ्यर्थी को नियुक्ति दी जा सकती है। सुनने और देखने की अल्प अक्षमता वाला व्यक्ति भी नियुक्ति प्राप्त कर सकता है, लेकिन दोनों पैरों से दिव्यांग व्यक्ति चाहे कितना भी होनहार क्यों न हो, उसे दिव्यांग कोटे में देने नियुक्ति का प्राविधान नहीं है।
दरअसल, दिग्यांगता के प्रति सरकार का यह अजब-गजब नजरिया तब उजागर हुआ, जब उत्तराखंड लोक सेवा आयोग ने शहरी विकास विभाग में कर एवं राजस्व निरीक्षक के पदों के लिए परीक्षा (वर्ष 2013) आयोजित की। उसमें चलन शक्ति में असमर्थ, अल्प रूप से देखने और सुनने में अक्षम अभ्यर्थियों के लिए एक-एक प्रतिशत आरक्षण (कुल तीन प्रतिशत) तय किया गया। दिलचस्प यह कि इसी के अंतर्गत आयोग ने दोनों पैरों से दिव्यांग महावीर बमराड़ा को परीक्षा में बैठने दिया। फिर साक्षात्कार के बाद उन्हें पास भी कर दिया।
हालांकि, जब नियुक्ति देने की बारी आई तो दिव्यांग अभ्यर्थी बमराड़ा को अयोग्य घोषित कर दिया गया। आयोग के रवैए से क्षुब्द होकर महावीर ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। वर्ष 2018 में एकल पीठ ने महावीर बमराड़ा को नौकरी देने का आदेश दिया। जिसके विरुद्ध सरकार ने डबल बेंच में अपील की।
जिसमें न्यायमूर्ति मनोज कुमार तिवारी और न्यायमूर्ति आशीष नैथानी की खंडपीठ ने एकल पीठ के निर्णय को सही पाते हुए विशेष याचिका खारिज कर दी। इस आदेश को भी करीब चार माह बीत चुके हैं, लेकिन विभाग और आयोग दोनों पैरों से दिव्यांग अभ्यर्थी को करीब 12 वर्ष से बेवजह इधर उधर दौड़ा रहा है।
कोर्ट की टिप्पणी में छिपा सरकारी उदासीनता का सार
कोर्ट ने कहा कि दिव्यांगजन को अवसर देना संसद की ओर से बनाए गए विकलांगजन अधिनियम 1995 की भावना है। यदि उम्मीदवार को योग्य घोषित कर साक्षात्कार में बुलाया गया और उसने समुचित अंक प्राप्त कर लिए हैं तो उसे अलग प्रकार की विकलांगता के आधार पर बाहर नहीं किया जा सकता।
इसके साथ ही कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता अकेला दिव्यांग उम्मीदवार था, जिसके चयन प्रक्रिया पास की। यदि उसे नियुक्ति नहीं दी जाती है तो पद रिक्त रह जाएगा। यह कानून और न्याय दोनों की भावना के विपरीत होगा।
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