उत्तराखंड में नकली दवाओं के निर्माण पर नजर रखने को नहीं कोई मजबूत तंत्र, हादसा होने के बाद जागता है विभाग
उत्तराखंड में नकली दवाओं के निर्माण को रोकने के लिए कोई मजबूत तंत्र नहीं है। फार्मा कंपनियों का पंजीकरण एक प्रक्रिया के बाद होता है, और विभाग नियमित रूप से सैंपलिंग करता है। नमूनों को प्रयोगशाला भेजा जाता है और मानकों का पालन न करने वाली कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई की जाती है। नकली दवाओं पर निगरानी रखने की कमी चिंताजनक है।

घटना होने अथवा शिकायत मिलने के बाद ही सक्रिय होता है विभाग. Concept Photo
राज्य ब्यूरो, जागरण, देहरादून। मध्यप्रदेश में हाल ही में बच्चों के कफ सीरप से हुई मौत के बाद से ही दवाओं के निर्माण में गुणवत्ता की जांच की प्रक्रियाओं को लेकर सवाल खड़े हो गए हैं। उत्तराखंड की स्थिति बहुत बेहतर नहीं है। यहां भी नकली दवाएं बनाने का कारोबार होता रहा है। पूर्व में यहां ऐसी फैक्ट्रियां पकड़ी जा चुकी हैं। विभाग के पास इन पर रोक लगाने की कोई ठोस व्यवस्था नहीं है। कोई शिकायत मिलने या फिर दवा के इस्तेमाल से मरीजों का स्वास्थ्य खराब होने के बाद ही विभाग नींद से जागता है।
उत्तराखंड में इस समय तीन सौ से अधिक फार्मा कंपनियां हैं। इनमें से अधिकांश कंपनियों का मुख्यालय दिल्ली अथवा अन्य दूसरे राज्यों में है। नई कंपनियों को राज्य औषधि नियंत्रण प्राधिकरण के तहत पंजीकृत किया जाता है। जिसकी सूचना केंद्रीय औषधि नियंत्रण प्राधिकरण को भी भेजनी होती है। पूर्व में यह देखा गया है कि कई फर्जी कंपनियां बिना पंजीकरण के ही प्रदेश में लंबे समय से दवा बनाने का काम कर रही थीं। ऐसी कंपनियों की शिकायत मिलने के बाद ही इन पर कार्रवाई हो पाई है।
फर्जी कंपनियों पर नजर रखने को नहीं ठोस व्यवस्था
प्रदेश में कहीं भी कोई कंपनी गुपचुप दवा बना ले और बाजार में भी बेच दे, विभाग को इसकी कोई भनक नहीं लगेगी। इसका पता तभी चलेगा जब कोई शिकायत अथवा कोई घटना होगी। ऐसे में इन कंपनियों के कैमिस्टों से सांठ-गांठ कर नकली दवाओं के बेचने की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता।
हादसा होने के बाद ही जागता है विभाग
यह देखा गया है कि विभाग हादसा होने के बाद ही जागता है। नियमानुसार विभाग को लगातार दुकानों में जाकर वहां बिकने वाले दवाओं के सैंपलों की जांच करनी चाहिए। जिन सैंपल पर शक हो, उनकी लैब जांच के साथ ही निर्माता कंपनी की जानकारी ली जानी चाहिए। ऐसी व्यवस्था फिलहाल नहीं है।
कंपनियों के पंजीकरण के बारे में पता करने में लगता है समय
प्रदेश में भी इस दवा कंपनियों के पंजीकरण आफलाइन होते हैं। यदि कहीं कोई संदिग्ध सैंपल पाया जाता है तो उसमें दर्ज पते पर आगे की जांच के लिए संबंधित जिलों को पत्र भेजा जाता है। पत्र के बाद यहां पंजीकरण की जानकारी ली जाती है। जब तक कंपनी व सैंपल की रिपोर्ट आती है तब तक दवाएं बाजार में बेरोकटोक बिकती रहती हैं।
22 हजार दवाओं की दुकान के लिए मात्र 24 इंस्पेक्टर
प्रदेश में दवाओं की दुकानों की चेकिंग को लेकर विभाग की गंभीरता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जिलों में इनकी जांच के लिए पर्याप्त अधिकारी नहीं रखे गए हैं। स्थिति यह है कि प्रदेश के आठ जिलों में मात्र एक ड्रग इंस्पेक्टर है। दो जिलों में दो ड्रग इंस्पेक्टर और तीन प्रमुख जिलों यानी देहरादून, ऊधमसिंह और हरिद्वार में ही तीन ड्रग इंस्पेक्टर हैं। यह संख्या नियमित सैंपल चेकिंग के लिए काफी कम है।
‘सभी फार्मा कंपनियों का पंजीकरण सुनिश्चित किया जाता है। पूरी प्रक्रिया के बाद ही पंजीकरण किया जाता है। विभाग नियमित रूप से सैंपलिंग अभियान चलाता है। यहां से सैंपल लेबोरेटरी में भेजे जाते हैं। मानकों का पालन नहीं करने वाली कंपनियों पर कार्रवाई भी की जाती है।’
-डा आर राजेश कुमार, सचिव स्वास्थ्य व आयुक्त खाद्य संरक्षा
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