Haridwar Kumbh Mela 2021: कुंभ: ऐसे 'काल' के उपासक बने शांति के पुजारी
Haridwar Kumbh Mela 2021 असल में कुंभ पर्वों पर देशभर से दशनामी संन्यासी व सनातन धर्म के विद्वान हरिद्वार प्रयाग उज्जैन व नासिक में एकत्र होकर बीते तीन वर्षों की धार्मिक गतिविधियों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं। अखिल भारतीय स्तर पर संतों के सम्मेलन का यही सर्वोत्तम मौका होता है।
दिनेश कुकरेती, देहरादून। Haridwar Kumbh Mela 2021 कुंभ पर्व क्या है और कैसे यह मेले में परिवर्तित हुआ, इस संबंध पौराणिक मान्यताओं की जानकारी कमोबेश सभी को है, लेकिन इस बात को शायद कम ही लोग जानते होंगे कि देश के कोने-कोने से साधु-संत क्यों कुंभ के निमित्त एक स्थान पर जुटते हैं। क्या उनका ध्येय महज स्नान करनाभर है। अगर अगर आप ऐसा ही मानते हैं तो यकीनन आपकी जानकारी अधूरी है। असल में कुंभ पर्वों पर देशभर से दशनामी संन्यासी व सनातन धर्म के विद्वान हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन व नासिक में एकत्र होकर बीते तीन वर्षों की धार्मिक गतिविधियों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं। अखिल भारतीय स्तर पर संतों के सम्मेलन का यही सर्वोत्तम मौका होता है। इस परंपरा का निर्वाह संतजन सदियों से करते आ रहे हैं।
इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि 14वीं सदी के आरंभ में आततायी शासकों ने सनातनी परंपरा को आघात पहुंचाना शुरू कर दिया था। तब परमहंस संन्यासियों को लगने लगा कि उनकी इस राक्षसी प्रवृत्ति पर शास्त्रीय मर्यादा के अनुकूल विवेक शक्ति से विजय पाना असंभव है। सो, एक कुंभ पर्व में दशनामी संन्यासियों और सनातन धर्म के ज्ञाता विद्वानों ने तय किया कि क्यों न शस्त्र का जवाब शस्त्र से ही दिया जाए। नतीजा, दशनामी संन्यासियों के संगठन की सामरिक संरचना फील्ड फॉरमेशन आरंभ हुई।
असल में स्थिति भी ऐसी ही थी। सनातनी परंपरा की रक्षा के लिए शस्त्र धारण करना ही एकमात्र विकल्प शेष रह गया था। लिहाजा, ऐसा निश्चय हो जाने पर सर्वानुमति से निर्णय लिया गया कि आगामी कुंभ पर्व के सम्मेलन में पूर्वोक्त चारों आम्नायों (शृंगेरी, गोवर्द्धन, ज्योतिष व शारदा मठ) से संबंधित दसों पदों के संन्यासियों की मढ़ियों के समस्त मठ संचालकों को विशेष रूप से आमंत्रित किया जाए।
इस निर्णय के अनुसार उससे अग्रिम कुंभ पर्व के सम्मेलन में देश के समस्त भागों से हजारों मठों के संचालक, विशिष्ट संत-संन्यासी व सनातन धर्म के ज्ञाता विद्वान इकट्ठा हुए। उन्होंने एकमत से फैसला लिया कि अब परमात्मा के कल्याणकारी शिव स्वरूप की उपासना करते हुए सनातन धर्म की रक्षा नहीं हो सकती। इसलिए परमात्मा रुद्र के संहारक भैरव स्वरूप की उपासना करते हुए हाथों में शस्त्र धारण कर दुष्टों का संहार किया जाए। ऐसा निश्चिय हो जाने के बाद शस्त्रों से सज्जित होने के लिए समस्त दशनामी पदों का आह्वान किया गया। इनमें विरक्त संन्यासियों के अलावा ऐसे सहस्त्रों नवयुवक भी सम्मिलित हुए, जिनके हृदय में सनातन धर्म की रक्षा के लिए सर्वस्व बलिदान करने की प्रबल भावना थी। हजारों की संख्या में नवयुवक संन्यास दीक्षा लेकर धर्म रक्षा के लिए कटिबद्ध हो गए।
परमात्मा के भैरव स्वरूप की अविच्छिन्न शक्ति प्रचंड भैरवी (मां दुर्गा) का आह्वान कर उनके प्रतीक के रूप में भालों की संरचना हुई। इन्हीं भालों के सानिध्य में दशनाम संन्यासियों को युद्धकला का प्रशिक्षण देकर शस्त्रों से सज्जित किया गया। इसके बाद प्रशिक्षित एवं शस्त्र सज्जित संन्यासियों ने वस्त्र आदि साधनों का परित्याग कर दिया। आदि शंकराचार्य से पूर्व जैसे परमहंस संन्यासी वस्त्र त्यागकर दिगंबर अवस्था में रहते थे, वैसे भी वे भी शरीर में भस्म लगाए दिगंबर अवस्था में रहने लगे। इसी दिगंबर रूप ने उन्हें नागा संन्यासी के रूप में प्रतिष्ठित किया। कालांतर में नागा संन्यासी संज्ञा ही उनकी पहचान हो गई। ज्योतिषाचार्य डॉ. सुशांत राज कहते हैं कि आज भी इसी परंपरा का निर्वाह करते हुए संतजन प्रत्येक तीन वर्षों के अंतराल में होने वाले कुंभपर्वों में एकत्र होकर भविष्य की कार्ययोजना तैयार करने को हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन व नासिक में जुटते हैं।
यह भी पढ़ें-इस अखाड़े में हैं सबसे अधिक नागा, नियम हैं बेहद कठोर; उल्लंघन पर दिखाया जाता है बाहर का रास्ता
Uttarakhand Flood Disaster: चमोली हादसे से संबंधित सभी सामग्री पढ़ने के लिए क्लिक करें