यहां 150 साल की हुई रामलीला, तालाब में होता है लंका दहन; जानिए
द्रोणनगरी में रामलीला ने एक सौ पचास साल पूरे कर लिए हैं। यहां की रामलीला की खास बात ये है कि यहां लंका दहन तालाब में होता है।
देहरादून, [दिनेश कुकरेती]: वैसे तो रामलीला का आयोजन पूरे देश में होता है, मगर हम यहां दून की रामलीला की बात करेंगे। गुरु द्रोणाचार्य की इस नगरी में कई रामलीला समितियों का जन्म हुआ, किंतु समय के साथ ये समितियां समाप्त होती चली गईं। वर्तमान में यहां गिनती की ही रामलीला समितियां अस्तित्व में हैं। इन्हीं में से एक है श्री रामलीला कला समिति। यही वो समिति है, जिसने देहरादून में रामलीला की नींव डाली और 150 साल पूरे किए। वहीं, इस रामलीला की खास बात ये है कि यहां लंका दहन तालाब में होता है, जो सभी के आकर्षण का केंद्र बना रहता है।
साल 1868 में लाला जमुनादास भगत ने तब इस रामलीला समिति का गठन किया था, जब देश गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। मूलरूप से देवगन, सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) निवासी लाला जमुनादास भगत का परिवार 200 वर्ष पहले दून आया और यहीं का होकर रह गया। वर्ष 1850 में जन्मे लाला जमुनादास शुरू से आध्यात्मिक प्रकृति के थे।
राम और कृष्ण की कहानियां सुनकर बड़े हुए जमुनादास बाल्यकाल से ही राम के चरित्र से प्रेरित थे। जब वह युवावस्था में पहुंचे तो उन्हें यह बात बहुत अखरी कि दून में कहीं भी ऐसा आयोजन नहीं होता, जो श्रीराम के चरित्र एवं उनके जीवन से लोगों को परिचित कराए। इसके बाद उन्होंने दून में हर वर्ष आश्विन नवरात्र में रामलीला का आयोजन करने का निर्णय लिया।
वर्ष 1868 में महज 18 वर्ष की आयु में कुछ दोस्तों के साथ उन्होंने रामलीला समिति बनाई, जिसे नाम दिया गया श्री रामलीला समिति। समिति के तत्वावधान में इसी वर्ष दून में पहली बार रामलीला का मंचन हुआ, जो 150 वर्षों से अनवरत जारी है। इस समिति की रामलीला नवरात्र के पहले दिन से शुरू होकर दशमी के बाद तीन-चार दिन तक चलती है।
तलाब में लंका दहन
इस रामलीला की दो बातें बड़ी ऐतिहासिक हैं। पहली यह कि राम शोभायात्रा का शुभारंभ आज भी शिवाजी धर्मशाला से होता है। दूसरी, समिति पिछले करीब सौ साल से झंडा बाजार स्थित तालाब में लंका दहन का आयोजन करती आ रही है। जो इस रामलीला का प्रमुख आकर्षण है। यह तालाब दरबार साहिब के ठीक सामने स्थित है।
रूप बदला, स्वरूप नहीं
इस समिति को भी समय के साथ रामलीला में काफी कुछ बदलाव करना पड़ा। मगर, स्वरूप आज भी 1868 वाला ही है। समिति के संरक्षक एवं पूर्व अध्यक्ष रविंद्रनाथ मांगलिक अब 77 वर्ष के हो चले हैं। वह लाला जमुनादास भगत के पोते हैं और दस वर्ष की आयु से समिति में अपना योगदान दे रहे हैं।
बकौल रविंद्रनाथ, ‘जब मैंने होश संभाला, तब रामलीला में दोहों और चौपाइयों का प्रयोग होता था। कलाकार भी स्थानीय होते थे और दोहे-चौपाइयों को याद करने के लिए महीनों अभ्यास किया करते थे। संगीत पक्ष में तबला और हारमोनियम का ही मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता था।’ कहते हैं, तमाम लोगों को दोहे-चौपाइयों का मतलब आसानी से समझ नहीं आता था। इसलिए हमने एक प्रयोग किया और दोहे-चौपाइयों की जगह डायलॉग्स ने ले ली। यानी रामलीला का मंचन गेय शैली की बजाय नाट्य शैली में होने लगा।
बाकी मूल स्वरूप में कोई छेड़छाड़ नहीं की गई। मंचन के दौरान कलाकार शुद्धता और मर्यादा का पूरा ख्याल रखते हैं। पिछले कुछ सालों से योग्य स्थानीय कलाकार नहीं मिल पा रहे हैं, इसलिए मथुरा-वृंदावन से पेशेवर कलाकार बुलाने पड़ते हैं।
गढ़भाषा लीला रामायण
चार अप्रैल 1977 को रेसकोर्स में गुणानंद ‘पथिक’ और साथियों ने ‘गढ़ साहित्य संस्कृति विकास परिषद’ की स्थापना की। इसका उद्देश्य गढ़वाली साहित्य-संस्कृति और गढ़वाली रामलीला प्रस्तुत करना था। रामलीला देहरादून के नगर निगम भवन में होती थी। इसमें पुतले नहीं जलाए जाते थे।
वर्ष 1984 में इस रामलीला को उत्तरकाशी माघ मेले में आमंत्रित किया गया और 1990 में परिषद ने चिन्यालीसौड़ व ऋषिकेश में भी रामलीला की प्रस्तुति दी। इस रामलीला में प्रस्तुत की जाने वाली चौपाई और गीत गढ़वाली में होते थे, जिन्हें गाने के लिए विशेष धुन तैयार की गई थीं।
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