लोगों को अहसास दिलाना होगा कि जंगल सरकारी नहीं उनके हैं, रिवाज में लाना होगा बदलाव
इस अवधारणा को तोड़ना होगा कि जंगल सरकारी हैं। बात समझनी होगी कि जंगल हैं तो तभी हवा पानी और मिट्टी उपलब्ध हो पाएगी। जरूरी है कि लोगों में अहसास दिलाए कि जंगल उनके हैं।
देहरादून, केदार दत्त। मौजूदा दौर में वानिकी के क्षेत्र में जनसहभागिता से वन प्रबंधन एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। विषम भूगोल और 71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में तो काफी पहले से ही जनसमुदाय की वानिकी में वन पंचायतों के माध्यम से भागीदारी रही है।
अलबत्ता, बदली परिस्थितियों में इस भागीदारी में थोड़ी कमी आई है, वह भी तब जबकि वनों का संरक्षण-संवर्धन इस राज्य की परंपरा का हिस्सा रहा है। वानिकी के क्षेत्र में इस जनसहभागिता को और मजबूत करने की आवश्यकता है।
उस अवधारणा को तोड़ना होगा, जिसमें कहा जाता है कि जंगल सरकारी हैं। बात समझनी होगी कि जंगल हैं तो तभी हवा, पानी और मिट्टी उपलब्ध हो पाएगी। ऐसे में जरूरी है कि वन महकमा लोगों को यह अहसास दिलाए कि जंगल उनके हैं और इसके लिए उसे अपनी रीति-नीति में बदलाव लाना होगा। साथ ही जनमानस को वानिकी के प्रति अपनी सक्रिय भूमिका अदा करनी होगी।
सुदृढ़ हों वन पंचायतें
उत्तराखंड देश का एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां वनों के संरक्षण के लिए वन पंचायतों की व्यवस्था अस्तित्व में है। इसका लंबा इतिहास रहा है और वन पंचायतों के माध्यम से स्थानीय समुदाय वन रूपी प्राकृतिक धरोहर के संरक्षण में भागीदारी करते आ रहे हैं। प्रदेशभर में गठित 12089 वन पंचायतें इसकी तस्दीक करती हैं।
वानिकी के क्षेत्र में जनसहभागिता को वन प्रबंधन का अहम हिस्सा बनाते हुए जनसमुदाय को वन पंचायतों के माध्यम से भागीदारी दी जा रही है। ऐसे में आवश्यक है कि वन पंचायतों के सशक्तीकरण पर फोकस किया जाए। हालांकि वन पंचायतों की सुदृढ़ीकरण योजना के अलावा कैंपा योजना से वन पंचायतों के संस्थागत ढांचे का सुदृढ़ीकरण, क्षमता विकास, वन पंचायतों में रोजगार सृजन एवं आय अर्जक गतिविधियां संचालित की जा रही हैं, मगर इन कार्यों को गंभीरता के साथ धरातल पर उतारना होगा। ये सुनिश्चित करना होगा कि योजनाएं आमजन को केंद्र में रखकर बनें।
वन पंचायतों के चुनाव
वनों के संरक्षण में जनभागीदारी के मद्देनजर वन पंचायतों के रूप में भले ही अनूठी व्यवस्था उत्तराखंड में है, लेकिन यह भी व्यवस्थागत खामियों से जूझ रही है। दरअसल, प्रत्येक वन पंचायत में सरपंच समेत नौ सदस्यों की टीम होती है।
इस लिहाज से देखें तो लगभग 1.09 लाख लोगों की संख्या सामने आती है, जिसका वन प्रबंधन में बेहतर उपयोग किया जा सकता है। बावजूद इसके हालत ये है कि बड़ी संख्या में वन पंचायतों में वषों से चुनाव ही नहीं हुए हैं। इस राह में कभी प्रशासनिक दिक्कतें तो कभी वन महकमे की हीलाहवाली जिम्मेदार रही है।
ऐसे में नाम के लिए तो वन पंचायतें अस्तित्व में हैं, मगर इनका सदुपयोग नहीं हो पा रहा। यदि हर पांच साल में चुनाव हों जाएं तो वन पंचायतों में आने वाले लोग नई ऊर्जा से काम करेंगे। इससे वन पंचायत के साथ महकमे और राज्य को भी फायदा होगा।
जेएफएम ईडीसी का गठन
विकेंद्रीकृत संस्थानिक ढांचे के तहत समुचित वनीकरण कार्यक्रम और इसके क्रियान्वयन में व्यापक जन सहभागिता के उद्देश्य से राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम एक बेहतर पहल के रूप में सामने आया है। इसके तहत उत्तराखंड में ग्राम स्तर स्तर पर संयुक्त वन प्रबंधन समितियां (जेएफएम), ग्राम वन समितियां और ईको डेवलपमेंट कमेटियों का गठन किया गया है।
यह भी पढ़ें: उत्तराखंड के जंगलों में चीड़ का फैलाव चिंताजनक, बढ़ा रहे आग का खतरा
इस व्यवस्था का मकसद, जमीनी स्तर पर न सिर्फ लोगों में क्षमता विकास बल्कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में उन्हें भाग लेने का अधिकार प्रदान करना है। जाहिर है कि वन प्रबंधन योजना में जेएफएम और ईडीसी की महत्वपूर्ण भूमिका है। बावजूद इसके, लोगों को इनकेमाध्यम से मिलने वाले अधिकारों की पूरी जानकारी नहीं है। वन प्रबंधन में आमजन की भागीदारी बढ़े, इसके लिए उन्हें इन समितियों के बारे में जानकारी से लैस किया जाना आवश्यक है।
यह भी पढ़ें: उत्तराखंड में फायर सीजन से निपटने को वन विभाग अलर्ट, फील्डकर्मियों की छुट्टियां रद