2525 किमी गंगा, संरक्षित क्षेत्र महज 9.16 फीसद, पढ़िए पूरी खबर
गंगा नदी के संरक्षण के लिए जो प्रयास किए जा रहे हैं उनमें नीतिगत रूप में सुधार लाने की जरूरत है। डब्ल्यूआइआइ ने करीब चार साल के अध्ययन के बाद इस बात को पुष्ट किया है।
देहरादून, सुमन सेमवाल। गंगा नदी के संरक्षण के लिए जो भी प्रयास किए जा रहे हैं, उनमें नीतिगत रूप में सुधार लाने की जरूरत है। यह महज एक विचार नहीं, बल्कि भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआइआइ) ने करीब चार साल के अध्ययन के बाद इस बात को पुष्ट किया है। गुरुवार को बायोडायवर्सिटी एंड गंगा कंजर्वेशन सेमिनार में 'क्रिटिकल पॉलिसी रिव्यू फॉर गंगा रिवर कंजर्वेशन' नामक इस शोध को साझा भी किया गया।
शोधकर्ता मिशेल इरेंगबम ने बताया कि गंगा की लंबाई करीब 2525 किलोमीटर है, मगर इसमें वन्यजीव संरक्षण अधिनियम-1972 के अनुसार महज 9.16 फीसद ही संरक्षित क्षेत्र घोषित किए गए हैं। वर्ष 2010 के कंन्वेंशन ऑन बायलॉजिकल डायवर्सिटी (सीबीडी) की बात करें तो यह संरक्षित क्षेत्र कम से कम 17 फीसद होना जरूरी है। दूसरी अहम बात यह है कि गंगा नदी में 50 फीसद ऐसी प्रजातियों का वासस्थल है, जो संकटग्रस्त श्रेणी की हैं। इस लिहाज से भी 9.16 फीसद संरक्षित क्षेत्र काफी कम हैं। यदि सही अर्थों में गंगा नदी की पारिस्थितिकी को बेहतर बनाना है तो संरक्षित क्षेत्र में इजाफा किया जाना चाहिए।
प्रमुख संकटग्रस्त प्रजातियों का संरक्षित क्षेत्र और भी कम
- प्रजाति, संरक्षित क्षेत्र (फीसद में)
- डॉल्फिन, 8.9
- स्मूद ऑटर (ऊदबिलाव), 9.2
- यूरेशियन ऑटर (सामान्य ऊदबिलाव), 3.2
इसलिए भी प्रभावी नहीं हो पा रही नीति
नदी पारिस्थितिकी को प्राथमिकता नहीं
अध्ययन में बताया गया कि राष्ट्रीय जल नीति में पहली प्राथमिकता सिंचाई को दी गई है। इसके बाद घरेलू उपयोग के पानी और अंतिम स्तर पर नदी व इसके जलीय जीवन पर ध्यान दिया जाता है। ऐसे में कई दफा जलीय जीवन की बेहतरी के लायक भी पानी उपलब्ध नहीं हो पाता।
सूचनाओं का अभाव
अध्ययन के मुताबिक नदी संरक्षण को लेकर किए जा रहे कार्यों की सूचनाओं की कमी नजर आती है। रिवर कनेक्टिविटी को लेकर भी कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। सिर्फ राष्ट्रीय पर्यावरण नीति-2006 में ही कुछ हद तक स्थिति स्पष्ट है।
क्रियान्वयन का अभाव
नदी संरक्षण को लेकर जो भी काम किए जा रहे हैं या जो नियम बने हैं, उनकी तरफ उचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यदि ऐसा होता तो 2525 किलोमीटर लंबी गंगा नदी में महज 9.16 फीसद संरक्षित क्षेत्र नहीं होते।वाणिज्य के केंद्र में नहीं
भारतीय वन्यजीव संस्थान के शोध में बताया गया है कि नदी की परिस्थितिकी को वाणिज्य के केंद्र में नहीं रखा गया है। इस दिशा में जो भी मंत्रालय व विभाग काम कर रहे हैं, उनके बीच उचित तालमेल भी नहीं दिखता। ऐसे में जलीय पारिस्थितिकी को बेहतर बनाने व उनके समुचित उपयोग की योजनाओं को आकर्षित करना संभव नहीं हो पा रहा।
गंगा का 575 किमी हिस्सा बेहद प्रदूषित
गंगा नदी का करीब 575 किलोमीटर भाग बेहद प्रदूषित है। यहां जलीय जीवों के पनपने लायक स्थिति ही नहीं बन रही है। यह भाग उत्तर प्रदेश में कानपुर व बनारस के बीच का है, जबकि पश्चिम बंगाल में कोलकाता व फरक्का बैराज क्षेत्र का हिस्सा भी इसमें शामिल है। गुरुवार को गंगा नदी पर 'इकोलॉजिकल हेल्थ असेसमेंट ऑफ दि गंगा रिवर' नामक अध्ययन को साझा करते हुए यह जानकारी शोधार्थी डॉ. शिवानी बड़थ्वाल ने दी।
बायोडायवर्सिटी एंड गंगा कंजर्वेशन सेमीनार में अपने शोध को प्रस्तुत करते हुए डॉ. शिवानी ने बताया कि गंगा नदी को पानी की गहराई, उसके आसपास की आबादी, गंदे नालों की निकासी, उद्योगों की स्थिति आदि के हिसाब से उसकी स्थिति का आकलन किया गया। इसके लिए अधिकतम 206 अंकों का निर्धारण भी किया गया। अध्ययन में पता चला कि उत्तर प्रदेश के करीब 90 वर्ग किलोमीटर भाग का पानी सबसे बेहतर पाया गया। इसमें मेरठ के करीब हस्तिनापुर वाइल्डलाइफ सेंचुरी क्षेत्र प्रमुख है। उन्होंने महज शून्य से 15 अंक हासिल करने वाले कानपुर व बनारस का जिक्र करते हुए कहा कि कानपुर में उद्योगों का रासायनिक पानी भी नदी में मिलता है, जिससे यहां प्रदूषण अधिक है। इसी तरह बनारस समेत पश्चिम बंगाल में आबादी का दबाव अधिक होने के कारण गंदगी का स्तर बढ़ रहा है। इसके अलावा गंगा पर सेमीनार में एक दर्जन से अधिक शोध पत्र प्रस्तुत किए गए।
गंगोत्री के पास हर्षिल में भी मिले कीटनाशन
भारतीय वन्यजीव संस्थान के अध्ययन में पता चला है कि गंगा नदी के पानी में प्रतिबंधित श्रेणी के कीटनाशक व भारी धातु के तत्व भी मिल रहे हैं। शोधार्थियों ने अनुमान लगाया कि हर्षिल क्षेत्र में बागवानी के लिए कीटनाशक का प्रयोग किया जा रहा है। इसी तरह अन्य क्षेत्रों में भी नदी के पानी में पाए गए कीटनाशक इसी ओर इशारा कर रहे हैं कि खेती में प्रतिबंधित श्रेणी के कीटनाशकों का प्रयोग किया जा रहा है। यह ऐसे कीटनाशक हैं, जो 20 से 30 साल तक अस्तित्व में रह सकते हैं। दूसरी तरफ भारी धातुओं के तत्व इंडस्ट्री सेक्टर से निकलने वाले रासायनिक पानी की देन को माना जा रहा है। सिर्फ बिहार व झारखंड क्षेत्र में कीटनाशक सबसे कम पाए गए। इसके पीछे अनुमान लगाया गया कि यहां सहायक नदियों की कई धाराएं मिल रही हैं, जिससे पानी की गुणवत्ता बेहतर है।
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