Dehradun Disaster: आपदा में सांसों से छूटा साथ, अंतिम संस्कार को भी नहीं बढ़ा कोई हाथ
देहरादून के मंझाड़ा गांव में आपदा ने एक गरीब परिवार को बेसहारा कर दिया। श्रमिक वीरेंद्र की मलबे में दबकर मौत हो गई और परिवार के पास अंतिम संस्कार के लिए भी पैसे नहीं थे। मदद के लिए कोई आगे नहीं आया और अंत में कुछ लोगों ने मिलकर उनका अंतिम संस्कार कराया। वीरेंद्र के बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो गया है।

विजय जोशी, जागरण देहरादून । प्रकृति के कहर ने मंझाड़ा गांव में न सिर्फ घर उजाड़े, बल्कि एक परिवार के सपने और सहारा भी छीन लिया। इस गांव में आठ साल से रह रहे श्रमिक वीरेंद्र की मौत ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या गरीबी और मजबूरी इंसान को जीते-जी ही अकेला कर देती है।
चार दिन बाद मलबे से वीरेंद्र का शव निकाला गया, तो परिवार गहरे सदमें में पहुंचा गया। आर्थिक तंगी से जूझ रहे परिवार के पास वीरेंद्र का अंतिम संस्कार कराने तक के लिए भी पैसे नहीं थे। उनकी इस हालत पर किसी का दिल भी नहीं पसीजा और किसी ने हाथ नहीं बढ़ाया।
बीते मंगलवार सुबह पहाड़ी से मिट्टी और पत्थर का सैलाब आया। गांव के लोग चीखते-चिल्लाते घरों से भागे। ऐसे में वीरेंद्र दूसरों की मदद के लिए आगे बढ़े, लेकिन दो ग्रामीणों संग खुद ही मलबे में दब गए। चार दिन की खोदाई और संघर्ष के बाद जब शुक्रवार को रेस्क्यू दल ने उनका शव निकाला, तो परिवार टूटकर बिखर गया। वीरेंद्र का जीवन मुफलिसी में बीता।
स्नातक डिग्री लेने के बावजूद गरीबी ने उन्हें दिहाड़ी मजदूर बना दिया। लेकिन मौत के बाद हालात और भी निर्मम हो गए। पत्नी के पास अंतिम संस्कार का खर्च उठाने तक के पैसे नहीं थे। न कोई जनप्रतिनिधि, न प्रशासन और न ही अधिकतर ग्रामीण उनके साथ खड़े हुए। गांव का मंजर दिल को झकझोर देने वाला था। वीरेंद्र को कंधा देने के लिए चार लोग तक नहीं जुटे।
आखिरकार शिक्षक धर्मेंद्र रावत और दो ग्रामीण आगे आए और जैसे-तैसे नालापानी श्मशान घाट ले जाकर उनका अंतिम संस्कार कराया। उस पल वीरेंद्र की पत्नी और बच्चे फूट-फूटकर रो पड़े। वीरेंद्र के होनहार बच्चों का भविष्य भी अंधकार में नजर आ रहा है।
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