उत्तराखंड में एकजुट उक्रांद की सियासी डगर नहीं है आसान
उत्तराखंड में क्षेत्रीय ताकत के रूप में पहचान रखने वाला उत्तराखंड क्रांति दल (उक्रांद) अब हाशिये पर है। दल का सियासी हिसाब किताब तो यही बयां कर रहा है कि दल की डगर काफी कठिन है।
देहरादून, [राज्य ब्यूरो]: यह किसी से छिपा नहीं है कि देश में क्षेत्रीय सियासी दल अपने-अपने क्षेत्रों में विकास के दृष्टिकोण से अहम भूमिका निभाते आए हैं। इस लिहाज से देखें तो उत्तराखंड में क्षेत्रीय ताकत के रूप में पहचान रखने वाला उत्तराखंड क्रांति दल (उक्रांद) अब हाशिये पर है। हालांकि, लगातार ठोकरें खाने के बाद दल के सभी धड़ों में एका होने के साथ ही अब इसे पुनर्जीवित करने की कसरत हो रही है, लेकिन उसके सामने चुनौतियों का पहाड़ है। खासकर, राजनीतिक जमीन बरकरार रखने के साथ ही राज्य व राज्यवासियों से जुड़े मुद्दों को लेकर मुखर होने की।
बदली परिस्थितियों में जैसा सूरतेहाल है, उसमें उक्रांद की सियासी डगर भी खासी कठिन हो चली है। थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो 25 जुलाई 1979 में अस्तित्व में आए इस दल की राज्य निर्माण आंदोलन में अहम भूमिका रही, लेकिन राजनीतिक अनुभवहीनता और शीर्ष नेतृत्व की महत्वाकांक्षाओं ने एक बड़ी क्षेत्रीय ताकत को रसातल में धकेल दिया।
अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि पहले विधानसभा चुनाव में दल ने चार सीटें जरूर हासिल कीं, मगर वह अपनी सियासी जमीन नहीं बना पाया। इसके बाद के चुनावों में उसके विधायकों की संख्या घटती चली गई, बल्कि पिछले साल हुए चुनाव में वह खाता भी नहीं खोल पाया। यही नहीं, 2002 में जहां उसका मत-प्रतिशत साढ़े पांच फीसद था वह अब घटकर 0.7 पर आ गया।
असल में 2007 और 2012 में भाजपा और कांग्रेस का समर्थन कर सरकार में शामिल होकर दल ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी। इसके चलते जहां दल में बिखराव के सुर तेज हुए और यह कई धड़ों में बंट गया। सब अपनी ढपली अपना राग अलापने लगे।
नतीजतन, एक क्षेत्रीय ताकत राष्ट्रीय दलों की चमक- धमक के बीच गुम हो गई। अब तो स्थिति ये है कि दल के सामने राज्य स्तरीय दल की मान्यता बचाने की भी चुनौती खड़ी हो गई है।
लंबे इंतजार के बाद दल के शीर्ष नेताओं को बात समझ आई तो अब सभी एकजुट हुए हैं और दल को जिंदा करने की कवायद शुरू की गई, लेकिन सामने पहाड़ सरीखी चुनौतियां मुंहबाए खड़ी हैं। पहली सबसे बड़ी चुनौती को जनता का खोया विश्वास हासिल करने की है।
जाहिर है कि इसके लिए जनता के बीच जाकर उसके सवालों को लेकर लड़ाई लडऩी होगी। ग्रामीण इलाकों के साथ ही शहरी क्षेत्रों में भी पकड़ बनानी होगी।
हालांकि, इस साल राज्य में निकाय चुनाव के साथ ही अगले साल पंचायत चुनाव यूकेडी के लिए सुनहरा मौका हो सकते हैं। बशर्ते, जमीनी स्तर पर काम हो। यही नहीं, परिसंपत्तियों का बंटवारा, गैरसैंण का सवाल, पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार समेत राज्य से जुड़े मसलों को लेकर मुखर होने की जरूरत है। देखने वाली बात होगी कि उक्रांद अपने वजूद को बचाए रखने के लिए आने वाले दिनों में कैसे तेवर अपनाता है।
सियासी हिसाब-किताब
वर्ष---------मत प्रतिशत------विस में सीटें
2002--------5.49--------------चार
2007--------5.50--------------तीन
2012--------1.93--------------एक
2017---------0.7--------------शून्य
जनता की आवाज बनेंगे
उक्रांद के केंद्रीय अध्यक्ष दिवाकर भट्ट के मुताबिक शीर्ष नेतृत्व में संवादहीनता और दल में राष्ट्रीय दलों की घुसपैठ पूर्व में उक्रांद के टूटने का कारण बनी। अब सभी लोग इस बात को समझ चुके हैं। दल में अनुशासनहीनता के लिए कोई जगह नहीं है। इस साल उक्रांद नए कलेवर में जनता की आवाज तो बनेगा ही, अन्य क्षेत्रीय ताकतों को भी एकजुट करेगा।
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