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    जंगल की बात : पौधे लगाएं और इन्हें बचाएं भी, तभी पौधारोपण की सार्थकता होगी सिद्ध

    By Sunil NegiEdited By:
    Updated: Sat, 10 Jul 2021 08:48 AM (IST)

    जंगलों में ही हर साल डेढ़ से दो करोड़ पौधे लग रहे मगर इनमें से कितने जीवित रह रहे अपने आप में विचारणीय प्रश्न है। ऐसा ही हाल अन्य विभागों संस्थाओं की ...और पढ़ें

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    वन महोत्सव के तहत ग्राम पंचायत तिखोन में पौधारोपण करते ग्रामीण व वन विभाग कर्मी।

    केदार दत्त, देहरादून। वन महोत्सव के आगाज के साथ ही उत्तराखंड में भी हरियाली के लिए मुहिम तेज हो गई है। पहाड़ से लेकर मैदान और शहर से लेकर गांव तक सभी जगह पौधारोपण को लेकर उत्साह दिख रहा है। यह होना भी चाहिए। बावजूद इसके फिजां में यह सवाल भी अपनी जगह कायम है कि क्या हम वास्तव में हरियाली को लेकर सजग हैं। पिछले अनुभव इस मामले में कचोटने वाले हैं। यहां के जंगलों में ही हर साल डेढ़ से दो करोड़ पौधे लग रहे, मगर इनमें से कितने जीवित रह रहे, अपने आप में विचारणीय प्रश्न है। यदि सभी पौधे जीवित होते तो आज उत्तराखंड में वनावरण 46 फीसद से कहीं आगे बढ़ चुका होता। ऐसा ही हाल अन्य विभागों, संस्थाओं की ओर से रोपे जाने वाले पौधों का भी है। इस सबसे सबक लेने की जरूरत है। पौधे लगाएं और इन्हें बचाएं भी। तभी पौधारोपण की सार्थकता सिद्ध होगी।

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    नेशनल पार्क, चिड़ि‍याघरों की लौटी रौनक

    कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर ने उत्तराखंड में वन्यजीव पर्यटन से जुड़ी गतिविधियां भी पूरी तरह थाम दी थीं। कोरोना संक्रमण और मनुष्य से इस वायरस के वन्यजीवों में फैलने की आशंका को देखते हुए नैनीताल व देहरादून के चिड़ि‍याघरों के अलावा सभी छह नेशनल पार्क, सात अभयारण्य और चार कंजर्वेशन रिजर्व के दरवाजे पर्यटकों के लिए मई में बंद कर दिए गए थे। अब जबकि संक्रमण के मामले कम हुए हैं और प्रदेश में लागू कोविड कफ्र्यू अनलाक की तरफ बढ़ रहा है तो नेशनल पार्क, चिड़ि‍याघर, अभयारण्य आदि को खोलने की छूट दे दी गई है। इसके साथ ही सैलानियों ने चिड़ि‍याघरों, पार्कों की ओर रुख करना शुरू कर दिया है, जिससे वहां की रौनक लौटी। बावजूद इसके चुनौतियां कम नहीं हैं। कोरोना संक्रमण के मामले कम जरूर हुए, मगर यह अभी गया नहीं है। लिहाजा, चिड़ि‍याघर, पार्क व अभयारण्य की सैर के दौरान सावधानी बरतना जरूरी है।

    जल संरक्षण को गंभीरता की दरकार

    उत्तराखंड में प्रतिवर्ष औसतन 1521 मिमी बारिश होती है, जिसमें चौमासे (मानसून सीजन) का योगदान 1229 मिमी का है। यदि चौमासे की बारिश का कुछ हिस्सा हम सहेज लें तो बड़ी राहत मिल सकती है। खासकर, वन क्षेत्रों के मामले में यह बेहद आवश्यक है। वर्षा जल संरक्षण से जंगलों में नमी बरकरार रहेगी तो जल स्रोत भी पुनर्जीवित होंगे। पिछले साल अक्टूबर से इस वर्ष जून तक जंगलों में लगी रही आग के पीछे भी नमी कम होने को बड़ी वजह माना गया था। यानी, वनों को आग से बचाने के लिए वन क्षेत्रों में नमी आवश्यक है। हालांकि, इसके लिए वन महकमा प्रयास कर रहा है, लेकिन बदली परिस्थितियों में इन प्रयासों को पूरी गंभीरता के साथ धरातल पर आकार देने की है। वर्षा जल संरक्षण की मुहिम में स्थानीय समुदाय की भागीदारी भी आवश्यक है। बात समझने की है कि जंगल हमारे अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न हैं।

    गुलदार के हमले उड़ा रहे नींद

    बाघ, हाथी समेत दूसरे वन्यजीवों के संरक्षण में उत्तराखंड भले ही सफलता के झंडे गाड़ रहा हो, लेकिन सालभर चर्चा में तो गुलदार ही रहता है। वन्यजीवों के हमलों में करीब 80 फीसद गुलदार के होते हैं। वर्तमान में तो गुलदार के हमलों के लिहाज से बेहद संवेदनशील वक्त चल रहा है। मानसून सीजन में गुलदार ज्यादा खतरनाक साबित होते हैं। बरसात के चलते ये आसान शिकार की तलाश में आबादी वाले क्षेत्रों के आसपास ज्यादा धमकते हैं। इन दिनों भी गुलदार के हमले अक्सर सुर्खियां बन रहे हैं। गुलदार के खतरे को देखते हुए वन विभाग को तो प्रभावी कदम उठाने ही होंगे, जनसामान्य को भी अधिक सजग और सतर्क रहने की आवश्यकता है। गुलदार प्रभावित गांवों में प्रशिक्षित स्वयंसेवकों की टीम तैनात करने का पूर्व में निर्णय लिया गया था। इस दिशा में विभाग को तेजी से कदम बढ़ाने के साथ ही जनजागरण पर खास फोकस करना होगा।

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