अच्छे खासे अस्पताल को लगा दिया मर्ज, मरीजों की बन रही चक्करघिन्नी
दूरस्थ क्षेत्रों के लोगों को छोटी बीमारियों के उपचार को भी कस्बाई व शहरी क्षेत्रों की दौड़ लगाना मजबूरी बना हुआ है। ऐसे में प्रदेश के सबसे बड़े दून अस्पताल में मरीज परेशान हैं।
देहरादून, सुकांत ममगाईं। विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले उत्तराखंड में स्वास्थ्य सुविधा ऐसा मसला है, जिसके समाधान की दिशा में गंभीर पहल का इंतजार 18 साल बाद भी खत्म नहीं हो पाया है। खासकर, चिकित्सकों को पहाड़ चढ़ाने के मोर्चे पर वह सफलता सिस्टम को अब तक नहीं मिली, जिसकी दरकरार है।
दूरस्थ क्षेत्रों के लोगों को छोटी-छोटी बीमारियों के उपचार के लिए भी कस्बाई व शहरी क्षेत्रों की दौड़ लगाना मजबूरी बना हुआ है। उस पर तुर्रा ये कि शहरी क्षेत्रों में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को खुद उपचार की दरकार है। अब एक दौर में राज्य के सबसे बड़े सरकारी अस्पतालों में शुमार रहे दून अस्पताल को ही देख लीजिए। यह अस्पताल राज्यभर के लोगों को उपचार मुहैया करा रहा था, मगर पिछली सरकार ने इसे मेडिकल कॉलेज में तब्दील कर दिया।
मेडिकल कॉलेज की स्थापना से किसी को कोई गुरेज नहीं है, मगर सरकार के इस कदम से स्थितियां बद से बदतर होती चली गई। परिणामस्वरूप मरीजों को उपचार के लिए यहां आकर भी भटकना पड़ रहा है। सबकी जुबां पर एक अस्पताल के छिनने और इसी तर्ज पर दूसरा अस्पताल खड़ा न होने का दर्द साफ देखा जा सकता है।
जाहिर है कि लोकसभा चुनाव में यह बड़ा मुद्दा साबित होगा। ये बात भी सही है कि सियासतदां ने अस्पताल छिनने पर चिंता तो जाहिर की, मगर दून अस्पताल को लौटाने अथवा इसी की तर्ज पर नया अस्पताल बनाने की दिशा में शायद ही कभी गंभीरता से पहल की हो। सूरतेहाल, इस चुनाव में जनता के बीच आने वाले सियासतदां को मतदाताओं के इससे संबंधित सवाल पर जूझना पड़ेगा।
चक्करघिन्नी बने मरीज
दून मेडिकल कॉलेज अस्पताल में चिकित्सकों और संसाधनों की कमी तो है ही, इसके साथ ही जिस डॉक्टर से इलाज करवा रहे हैं उसका नियमित न मिल पाना भी एक बड़ी समस्या है। यहां एमसीआइ के मानकों के अनुसार डॉक्टर यूनिट के तहत ओपीडी में बैठते हैं।
हरेक चिकित्सक का ओपीडी, आइपीडी, ओटी आदि का दिन निर्धारित है। ऐसे में यदि किसी चिकित्सक ने मरीज को कोई टेस्ट करवाया तो टेस्ट करवाकर मरीज दूसरे दिन उस चिकित्सक को खोजते रह जाएगा। इस नई व्यवस्था में मरीज चक्करघिन्नी बन गए हैं।
बूढ़ी मशीनें बढ़ा रहीं मर्ज
करीब तीन वर्ष पूर्व दून व दून महिला अस्पताल को एकीकृत कर मेडिकल कॉलेज के टीचिंग अस्पताल में तब्दील कर दिया गया और विरासत में मिली तमाम पुरानी मशीनें व उपकरण। इनमें कई मशीनें अपनी उम्र तक पूरी कर चुकी हैं। जिनके जब तब खराब होने से मरीजों को परेशानी उठानी पड़ रही है। वह बाहर निजी केंद्रों पर जांच कराने को मजबूर हैं। एमआरआइ, एक्स-रे, सीटी स्कैन, वार्मर समेत वेंटीलेटर तक के यही हाल हैं।
निक्कू वार्ड की भी हालत बुरी
शहर में मात्र दून महिला अस्पताल में सिक न्यूबॉर्न केयर यूनिट (एसएनसीयू) है। पर स्थिति यह कि यहां वेंटीलेटर तक की पर्याप्त सुविधा नहीं है। वहीं अस्पताल में अधिकतर बेबी वार्मर भी खराब पड़े हैं। अधिकारी बार-बार निरीक्षण में यह दावा करते आए हैं कि इन्हें जल्द दुरुस्त कर लिया जाएगा। पूर्व में यह यूनिट एनएचएम के तहत संचालित की जाती थी, पर मेडिकल कॉलेज बनने के बाद इसमें भी तकनीकी पेंच फंस गया है।
बजट की भी तंगी
जिला अस्पताल रहते दून अस्पताल को स्वास्थ्य विभाग से करीब 15 करोड़ रुपये का सालाना बजट मिलता था, लेकिन मेडिकल कॉलेज बन जाने के बाद यह भी मिलना बंद हो गया। जिससे अस्पताल प्रशासन को तमाम मोर्चों पर जूझना पड़ रहा है। हर अंतराल बाद किसी न किसी सुविधा पर अडंगा लग जाता है। कभी किट की कमी से पैथोलॉजी जांच बंद होती है और कभी दवाओं की कमी।
डॉक्टर-कर्मचारियों के वेतन पर भी जब तब संकट उत्पन्न हो जाता है। इधर, अस्पताल प्रबंधन समिति भी मेडिकल कॉलेज बनते ही भंग हो गई। इसके फिर अस्तित्व में आने की बात जरूर हुई, पर यह बात भी आई गई हो गई।
दवा को लेकर भी दिक्कत
दून अस्पताल व दून महिला पहले स्वास्थ्य विभाग के अधीन था। स्वास्थ्य विभाग अधिकतर दवाओं की खरीद केंद्रीयकृत व्यवस्था के तहत करता है। जिनकी अस्पतालों में आपूर्ति की जाती है। कुछ खरीद अस्पताल अपने स्तर पर भी करते हैं। पर मेडिकल कॉलेज होने के नाते अब अस्पताल चिकित्सा शिक्षा विभाग के अधीन है। जहां केंद्रीयकृत खरीद की व्यवस्था नहीं है। अस्पताल अपने स्तर पर ही खरीद करता है। जिसमें जब तब बजट की कमी आड़े आती है।
विभिन्न राष्ट्रीय कार्यक्रमों से भी अछूते
पूर्व में दून महिला अस्पताल का जननी सुरक्षा योजना के तहत श्री महंत इन्दिरेश अस्पताल के साथ अनुबंध था। डिलिवरी का कोई क्रिटिकल केस आने पर उसे वहां रेफर कर दिया जाता था। इलाज का खर्च सरकार वहन करती थी, पर इस पर भी मेडिकल कॉलेज बनने के बाद विराम लग गया।
जिला अंधता निवारण कार्यक्रम के तहत केंद्र सरकार की ओर से मिलने वाला बजट भी अब अस्पताल को नहीं मिल पा रहा है। उसका बंदोबस्त भी अपने स्तर पर करना पड़ रहा है।
विस्तार की भी गुंजाइश नहीं
दून अस्पताल व दून महिला अस्पताल को पूर्ववर्ती सरकार ने बिना भविष्य का आकलन किए मेडिकल कॉलेज में तब्दील कर दिया। जबकि यहां विस्तार की भी ज्यादा गुंजाइश नहीं है। चतुर्थ वर्ष की मान्यता के लिए एमसीआइ के मानकों के अनुरूप 410 बेड का बंदोबस्त करना ही कॉलेज प्रशासन के लिए सिरदर्द बन गया है।
पीजी पाठ्यक्रम संचालित करने के लिए दून मेडिकल कॉलेज को 750 बेड का अस्पताल चाहिए। ऐसे में मेडिकल कॉलेज का अस्पताल अलग कहीं बनाने की योजना है। सवाल यह कि अस्पताल जब अलग ही बनाना था, तो एक चलते अस्पताल को मेडिकल कॉलेज बनाने में हड़बड़ी क्यों दिखाई गई।
रेफरल में भी दिक्कत
दून अस्पताल के मेडिकल कॉलेज बन जाने के बाद यहां रेफरल की भी दिक्कत उत्पन्न हो गई है। नियमानुसार एक मेडिकल कॉलेज दूसरे मेडिकल कॉलेज को केस रेफर नहीं कर सकता। किसी हायर सेंटर को ही मरीज रेफर किए जा सकते हैं। मसलन एम्स या पीजीआइ जैसे संस्थान को। ऐसे में इस व्यवस्था ने भी मरीजों को दुविधा में डाल दिया है।
नयी ओपीडी व मुख्य परिसर के बीच कोरिडोर नहीं
दून मेडिकल कॉलेज चिकित्सालय के नए ओपीडी ब्लॉक का निर्माण तहसील चौक पर किया गया है। इसमें कई विभाग शुरू भी कर दिए गए हैं। पर एक समस्या है जो अभी भी मुंह बाहे खड़ी है। मुख्य परिसर व नए ओपीडी ब्लॉक के बीच कोरिडोर नहीं है। जबकि इन दोनों परिसर के बीच हर वक्त भारी ट्रैफिक रहता है। ऐसे में यह भी मरीजों के लिए एक बड़ी समस्या है।
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