उत्तराखंड: ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण को लेकर उम्मीद के साथ उभरते कई सवाल
उत्तराखंड की सियासी फिजा में गैरसैंण की गूंज रही। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत ने गैरसैंण को राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया साथ ही वहां पर राजधानी का ढांचा विकसित करने के लिए दस वर्षों में 25 हजार करोड़ रुपये की धनराशि की योजनाओं पर काम करने की घोषणा भी की।
देहरादून, कुशल कोठियाल। पिछले पखवाड़े उत्तराखंड की सियासी फिजा में गैरसैंण की गूंज रही। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने गैरसैंण को राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया, साथ ही वहां पर राजधानी का ढांचा विकसित करने के लिए दस वर्षों में 25 हजार करोड़ रुपये की धनराशि की योजनाओं पर काम करने की घोषणा भी की। मुख्यमंत्री के इस कदम को काफी साहसिक माना जा रहा
है, क्योंकि राजधानी का मुद्दा राजनीतिक दृष्टि से बेहद संवेदनशील समझा जाता रहा है। यही वजह है कि कोई भी सरकार राजधानी के मुद्दे पर कुछ भी घोषित रूप से नहीं कर पाई। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की सरकार में जो विधानसभा भवन वहां बना, उसमें अब तक बमुश्किल दस दिन तक की विधायी कार्यवाही हुई है, लेकिन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने 125 करोड़ की लागत वाले सचिवालय की नींव भी रख दी। राज्य की स्थापना दिवस पर हर साल देहरादून में होने वाला मुख्य समारोह भी इस बार गैरसैंण में आयोजित किया गया एवं मुख्यमंत्री ने प्रमुखता के साथ आयोजन में शिरकत की।
राज्य के अस्तित्व में आने के बाद से गैरसैंण एक मुद्दा रहा, लेकिन कांग्रेस हो या भाजपा किसी ने भी राजधानी के मसले को हल करने का ईमानदार प्रयास नहीं किया। राजधानी पर जस्टिस दीक्षित कमीशन की रिपोर्ट कहीं धूल फांक रही है और वोट बैंक राजनीति कुलाचें भर रही है। यही वजह है कि राजधानी जैसे मसले पर वैज्ञानिक दृष्टि से सोचने एवं निर्णय लेने के बजाय बेहद टालू रवैया अपनाया जाता रहा। गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी तो घोषित कर दिया गया, लेकिन जहां से पूरा राजकाज चल रहा है उसका नाम अब भी अस्थायी राजधानी है।
यानी देहरादून अभी तक घोषित रूप से शीतकालीन राजधानी भी नहीं है। गैरसैंण राजधानी के पीछे सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता रहा कि इससे विकास की धारा पहाड़ों की ओर बढ़ेगी। यानी जहां राजधानी वहीं विकास। राज्य के एक बड़े तबके द्वारा गढ़ा हुआ तर्क माना जा रहा है। इसी तबके के अनुसार कांग्रेस एवं भाजपा दोनों के लिए गैरसैंण पहाड़वासियों की भावनाओं के राजनीतिक दोहन का माध्यम मात्र है। राजधानी यदि विकास का आधार होती, तो बीस सालों में देहरादून की स्थिति बदतर क्यों हुई? गैरसैंण को अपने बाबू और माननीय अभी तक पिकनिक स्पॉट से ज्यादा नहीं समझते हैं।
प्रश्न यह भी उछल रहा है कि जब पौड़ी में मंडल मुख्यालय होने के बावजूद मंडलीय अधिकारी रहने को तैयार नहीं हैं, तो गैरसैंण में बड़े बाबू कैसे बिराजेंगे? अब लोग यह भी पूछ रहे हैं कि 25 हजार करोड़ रुपये में सचिवालय, अधिकारियों के आवास एवं अन्य ढांचागत सुविधाएं तो खड़ी हो जाएंगी, लेकिन यदि ये सब सक्रिय नहीं हुए, तो यह करदाताओं की जेब काटने जैसा नहीं होगा? केवल भावनाओं के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए हजारों करोड़ रुपये क्यों बहाए जाएं? यदि पहाड़ों पर पोषित की जा रहीं अपेक्षाओं के अनुरूप विकास नहीं हुआ, तो दस साल बाद उत्तराखंडी यह तो पूछेंगे ही कि ग्रीष्मकालीन राजधानी से उन्हें आखिर मिला क्या? करीब डेढ़ सौ करोड़ रुपये की लागत से बने विधानसभा भवन में साल भर में दो-तीन दिन सत्र एवं बाकी समय सन्नाटा, कई सवाल खड़े कर रहा है। उत्तराखंड के शुभचिंतकों का कहना है कि राजधानी की घोषणा से नहीं, आशा अनुरूप हुए विकास कार्य ही गैरसैंण के औचित्य को साबित करेंगे।
काश, ऐसी चौकसी सालभर बनी रहे
71.05 फीसद वन भूभाग वाला उत्तराखंड वन्यजीव विविधता के लिए भी प्रसिद्ध है। यहां के जंगलों में फल-फूल रहा वन्यजीवों का कुनबा इस सूबे को देश-दुनिया में वैशिष्ट्य भी प्रदान करता है। अलबत्ता, तस्वीर का दूसरा पहलू भी है, यहां के वन्यजीव हमेशा ही शिकारियों और तस्करों के निशाने पर रहे हैं। त्योहारों के दौरान तो शिकारी एवं तस्कर ज्यादा सक्रिय रहते हैं। इसे देखते हुए इन दिनों भी राज्य में हाई अलर्ट चल रहा है। साथ ही सभी संरक्षित क्षेत्रों के अलावा उत्तराखंड की सीमाओं पर खास चौकसी चल रही है। इसका असर भी दिखा और दीपावली के त्योहार के दरम्यान जंगलों में
शिकार की कोई घटना अभी तक सामने नहीं आई। ऐसे में हर किसी की जुबां पर यही बात है कि ऐसी सक्रियता सिर्फ त्योहारी सीजन पर ही क्यों, सालभर क्यों नहीं? बात भी सही है, यदि वर्षभर इसी तरह की सक्रियता वन महकमा बनाए रखे, तो तस्करों एवं शिकारियों की इतनी हिम्मत नहीं कि वे यहां के जंगलों की तरफ नजर उठाकर भी देख सकें।
[राज्य संपादक, उत्तराखंड]