संक्रमण काल से गुजर रही गढ़वाली-कुमाऊंनी भाषा
यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार देश की 196 भाषा संकटग्रस्त हैं। उत्तराखंड की तो सभी बोली-भाषाएं विलुप्त होने की कगार पर हैं। अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर शुक्रवार को प्रेस क्लब के सभागार में धाद लोकभाषा एकांश की ओर से आयोजित कार्यशाला में वक्ताओं ने कहा कि गढ़वाल और कुमाऊं में बोली जाने वाली भाषाएं संक्रमण काल से गुजर रही हैं।
जागरण संवाददाता, देहरादून: यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार देश की 196 भाषा संकटग्रस्त हैं। उत्तराखंड की तो सभी बोली-भाषाएं विलुप्त होने की कगार पर हैं। अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर शुक्रवार को प्रेस क्लब के सभागार में धाद लोकभाषा एकांश की ओर से आयोजित कार्यशाला में वक्ताओं ने कहा कि गढ़वाल और कुमाऊं में बोली जाने वाली भाषाएं संक्रमण काल से गुजर रही हैं। इनको संरक्षित करने में अगर हम कमजोर पड़े तो आने वाले कुछ वर्षो में हम अपनी संस्कृति से भी विमुख हो जाएंगे।
बतौर मुख्य वक्ता दून विश्वविद्यालय के भाषा विभाग के सहायक प्रवक्ता मधुरेंद्र झा ने कहा कि विश्व की कई भाषाओं के वैश्वीकरण के कारण क्षेत्रीय भाषा प्रतिस्पर्धा में पीछे छूट जा रही है। यही वजह है कि भाषाओं को संरक्षित करने की दिशा में यूनेस्को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की शुरुआत की। मगर भाषाओं का संरक्षण तभी होगा, जब हम उसका सम्मान करेंगे। लोक परंपराओं में आज भी क्षेत्रीय भाषा का ही सम्मान है, लेकिन जब तक उसे हम अपने कार्य व्यवहार में नहीं शामिल करते। तब तक भाषा के संरक्षण की परिकल्पना को साकार कर पाना मुश्किल है। कार्यशाला की अध्यक्षता कर रहे धाद के केंद्रीय अध्यक्ष लोकेश नवानी ने कहा कि भाषा हजारों वर्षो के काल क्रम में बनती है। आज के बाजारीकरण के दौर में सभी भाषाएं संक्रमण काल से गुजर रही हैं। यूनेस्को की रिपोर्ट कहती है कि भारत में 196 भाषाएं संकट में हैं, जिसमें उत्तराखंड की सभी भाषाएं शामिल है। गढ़वाली, कुमाऊंनी, जौनसारी, भोटिया लोकभाषा बोलने वाले लोगों का प्रतिशत गिर रहा है। इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है। इन्हें बचाना समाज का कर्तव्य है। कार्यशाला का संचालन शांति प्रसाद भट्ट जिज्ञासु ने किया।
गढ़वाली-कुमाऊंनी रचनाओं से गुदगुदाया
कार्यशाला में गढ़वाली व कुमाऊंनी के कवियों ने अपनी रचनाएं पेश कीं। उन्होंने कहा कि कवियों और रचनाकारों की पहली जिम्मेदारी है कि युवा पीढ़ी को अपनी लोकभाषा से जुड़ने के लिए प्रेरित की। हरीश कंडवाल मनखी ने भाषा के बाजारीकरण के दौर में गढ़वाली भाषा के विज्ञापन शीर्षक पर 'जूस हो तो लाल बुरांश, बाकी सब बकवास', अभिषेक डोबरियाल सरस ने 'धार मा बीणा ऐ ग्यायी, अर कख बीटे की', समित्रा जुगलान ने 'मकडू की पीड़ा', बीना बेंजवाल ने 'आखयूं आसू हमरा छौन्द',. दनेश डबराल ने 'बिजी जै', प्रेमलता सजवाण ने 'द मरण द्याव नौंन तै', बीना कंडारी ने 'सब कुछ बणायी अपर मुल्क नि बणाई', मदन ढुकलान ने अपनी कविता से सबको रिझाया। मसधुसूदन थपलियाल ने 'हम तै हकानाणा छन', मनोज भट्ट गढ़वाली ने 'जखम होला हैरी सारी, ऊंच डाडा, ठंडो पाणी', शाति बिंजोला ने 'मि गढ़वाली छो', सुरेश स्नेही ने 'या धरती कथगा स्वाणी छ', सत्यनाद बड़ोनी व लक्ष्मण रावत ने भी रचनाएं पेश कीं।
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