Uttarakhand: डरा रहीं हैं हिमालयी क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाएं, दरकने लगे हैं पहाड़; कौन है इसका जिम्मेदार
Uttarakhand Disaster Reason हिमालय आज अनेक झंझावत से जूझ रहा है। बढ़ते तापक्रम और जलवायु परिवर्तन का सीधा असर कहीं पड़ रहा तो वह हिमालयी क्षेत्र ही है। यहां अतिवृष्टि भूस्खलन भूधंसाव जैसी आपदाओं ने चिंता अधिक बढ़ा दी है। अनपेक्षित वर्षा का क्रम अधिक तबाही का कारण बन रहा है। इस सबके बावजूद हम आपदा के संकेतों को समझने का प्रयास नहीं कर रहे हैं।

देहरादून, केदार दत्त। वर्षाकाल में अमृत रूपी बूंदें जब धरा पर गिरती हैं तो समूची प्रकृति निखर उठती है। चारों तरफ पसरने वाली हरियाली हर किसी को मोह लेती है। हर कोई वर्षा ऋतु के स्वागत को आतुर हो उठता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। न वर्षाकाल का स्वागत हो रहा और न लोक में समाए इसके रंग बिखर पा रहे। कारण यह कि वर्षाकाल अब नींद उड़ाने लगा है। विशेषकर, हिमालयी क्षेत्र में मानसून के दौरान एक के बाद एक आ रही आपदाएं भयभीत करने लगी हैं। मध्य हिमालयी राज्य उत्तराखंड भी इससे अछूता नहीं है।
साफ है कि हम कहीं न कहीं हिमालय के संदर्भ में आपदाओं के संकेत को समझने में भूल कर रहे हैं या फिर जानबूझकर खतरे को न्योता दे रहे हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि समूचा हिमालयी क्षेत्र बेहद संवेदनशील है, फिर भी इसकी अनदेखी हो रही है। नतीजा, संकटों से घिरे हिमालय में प्राकृतिक आपदाएं अब बड़े खतरे का सबब बन गई हैं। जून 2013 की केदारनाथ आपदा से लेकर इस वर्ष हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड में आई आपदाएं इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
इस बार हुई 1300 करोड़ से अधिक की क्षति
हर साल ही वर्षाकाल में उत्तराखंड समेत सभी हिमालयी राज्य अतिवृष्टि, बाढ़, भूस्खलन जैसी आपदाओं से दो-चार हो रहे हैं। जिस हिमाचल प्रदेश को हिमालयी राज्यों के विकास का मॉडल कहा जाता था, वहां इस बार वर्षा का कहर जमकर टूटा है। बड़े पैमाने पर हुई जान-माल की क्षति ने अब हर किसी को सोचने पर विवश कर दिया है। उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यहां भी इस वर्षाकाल में अतिवृष्टि के कारण 1300 करोड़ से अधिक की क्षति हुई।
कब-कब आई तबाही
न केवल इस बार, बल्कि हर साल ही उत्तराखंड को आपदा का दंश झेलना पड़ रहा है। अतीत के आइने में झांकें तो वर्ष 1857 में अतिवृष्टि के कारण बिरही नदी में बना ताल टूटने से अलकनंदा घाटी में भारी तबाही हुई थी। वर्ष 1951 में नयार नदी में आई बाढ़ से सतपुली कस्बे में बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ था। वर्ष 1959 में कौंधा में हुए भूस्खलन से इसकी चपेट में आकर दर्जनों लोग मारे गए थे। वर्ष 2004 में बदरीनाथ क्षेत्र और वर्ष 2012 में रुद्रप्रयाग जिले में बादल फटने से लगभग 60 व्यक्तियों की जान चली गई थी।
जून 2013 की केदारनाथ में आई भीषणतम जलप्रलय में हजारों यात्रियों को जान गंवानी पड़ी थी। इसके बाद भी वर्षाकाल में आपदा से क्षति का क्रम बदस्तूर बना हुआ है। इसी वर्ष 15 जून से अब तक अलग-अलग स्थानों पर आई आपदा में 93 व्यक्तियों की मृत्यु हो गई, जबकि 16 लापता हैं। न केवल उत्तराखंड, बल्कि अन्य हिमालयी राज्यों की तस्वीर भी इससे अलग नहीं है। ऐसे में हिमालय की पुकार को यदि अब भी अनसुना किया गया तो भविष्य में इसके और घातक परिणाम सामने आएंगे।
'हम प्रकृति को लेकर लांघ रहे हैं अपनी सीमाएं'
विश्वभर में आ रही प्राकृतिक आपदाएं संकेत हैं कि हम प्रकृति को लेकर अपनी सीमाएं लांघते जा रहे हैं। इस दृष्टि से देखें तो हिमालय अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह प्रकृति का गढ़ है। इसकी अपनी विशिष्टता है, जिसे समझने की जरूरत है। इसे केंद्र में रखकर हम अपनी आवश्यकता तय करें और विलासिता को त्याग हिमालय के संरक्षण को आगे आएं। -पद्मभूषण डा अनिल प्रकाश जोशी, संस्थापक, हिमालयी पर्यावरण अध्ययन एवं संरक्षण संगठन।
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