Jagran Samvadi 2025: 'AI युग में हिंदी की रचनात्मकता चुनौतियां और समाधान, विशेषज्ञों ने खुलकर रखे विचार
Jagran Samvadi 2025 लेख में हिंदी साहित्य में रचनात्मकता के संकट पर विचार किया गया है। विशेषज्ञों ने माना कि समय के साथ बदलना जरूरी है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) भाषा को समझ सकता है पर भाव को नहीं। नई पीढ़ी को समझना और उनके अनुसार साहित्य सृजन करना होगा। इंटरनेट मीडिया के प्रभाव को स्वीकार करते हुए हमें ऐसी रचनाएं गढ़नी होंगी जो उन्हें आकर्षित करें।

गोविंद सनवाल, जागरण, देहरादून। समय का नियम है बदलना। यह आगे भी बदलता ही रहेगा। हिंदी साहित्य का बीता कल किताबों वाला ज्यादा था तो आज इंटरनेट मीडिया व शार्टकट का अधिक है। वही साहित्य आज इंटरनेट मीडिया में मौजूद है। हां, यह बात विमर्श व चिंतन की जरूर है कि नई पीढ़ी उस साहित्य के प्रति कितनी समर्पित है। हमें स्वीकार है कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआइ) ने बहुत कुछ बदल डाला है।
एआइ भाषा खासकर हिंदी के शब्दों को बेशक पकड़ ले, लेकिन उसके मर्म व भाव को यह टूल भी नहीं पकड़ सकता है। साहित्य के अलावा रेडियो व सिनेमा में भी आमूलचूल परिवर्तन आ गया है। ऐसे में हिंदी की रचनात्मकता को बनाए रखने के लिए जरूरी है पाठक-श्रोता-दर्शकों की जरूरतों को समझने की। रचनात्मकता हमेशा नए रूप में आती है। इसलिए अगर हिंदी साहित्य के सृजनकर्ताओं ने समय के साथ स्वयं को भी बदला तो रचनात्मकता के नए फूल खिलते रहेंगे। वैसे भी समय स्वयं हर चीज का समाधान निकालता ही है।
हिंदी साहित्य ही नहीं रेडियो-सिनेमा में भी परिवर्तन
रविवार को लेखक, कवयित्री, उपान्यासकार, पटकथा लेखिका और कथाकारों से जब जागरण संवादी का मंच सजा तो पहले हिंदी में रचनात्मकता में संकट पर बात हुई। लेखक नवीन चौधरी ने संवादी मंच को संचालित करते हुए विषय को विस्तार दिया। लेखिका व कवयित्री गगन गिल, उपन्यासकार व पटकथा लेखिका अनु सिंह चौधरी व कथाकार ममता सिंह के साथ संवाद ने गति पकड़ी और कई तरह की समस्याओं के ब्रेकर आए और पार होते गए। आखिर में उम्मीदों के उजाले के साथ समाधान का छोर भी दिखा। इस विमर्श में हमारी हिंदी को आगे रचनात्मकता की नित नई ऊंचाइयों पर ले जाने का संकल्प भी था।
भाषा दिल तक पहुंच रही है तो रचनात्मकता कायम
लेखक नवीन चौधरी ने संवाद की शुरुआत में मंचासीन विषय विशेषज्ञों की ओर सवाल उछाला कि क्या आज भाषा, बाजार या विचार का संकट खड़ा हो गया है। लेखिका गगन गिल इससे बहुत ज्यादा सहमत दिखीं। वहीं कथाकार ममता ने हिंदी में रचनात्मकता पर संकट के लिए काफी हद तक इंटरनेट मीडिया को जिम्मेदार माना। वह बोलीं, आज हमने अपनी सोच को मशीन के हवाले कर दिया है। खासकर नई पीढ़ी अपनी सोच व वैचारिकता को एआइ व चैटबाट को दे चुकी है।
पहले हम किसी सवाल के जवाब के लिए पत्र-पत्रिकाएं व समाचार पत्रों की कतरन खोजते थे। आज कंप्यूटर व मोबाइल पर सब एक क्लिक में मिल जाता है। माता-पिता भी आज बच्चों को तकनीकी का गुलाम नहीं, बल्कि टेक्नो स्मार्ट कहते हैं। जबकि उपन्यासकार अनु सिंह ने कहा कि नए माध्यमों से सामंजस्य बनाना आज चुनौती है। समय के साथ बदलाव आता ही है। तौर-तरीके, समय, पाठक, देशकाल और तकनीकी बदल रही है तो फर्क तो पड़ेगा ही, लेकिन यदि भाषा या संवाद दिल तक उतर रहा है तो यह रचनात्मकता के कायम रहने का सबूत भी है।
नई पीढ़ी को समझना और सामंजस्य बैठाना होगा
बेशक दौर इंटरनेट मीडिया का है। मिनट के भीतर सूचना आपके हाथ में है। तो क्या ऐसे में नई पीढ़ी तक हिंदी को हम उस रूप में पहुंचा पा रहे हैं, जैसे उनकी जरूरत है। विनोद चौधरी के इस सवाल पर गगन गिल का जवाब भी उतना ही स्पष्ट था। बोलीं-इंटरनेट मीडिया में आज जितनी जानकारी का भंडार है, हमारे लिए चुनौती भी उतनी ही अधिक है। इस साहित्य की किसी भी विधा के जरिये आप अपनी बात किस तरह रखते हैं यह ज्यादा मायने रखता है। हमें ऐसी रचनात्मकता गढ़नी होगी जो नई पीढ़ी के पाठक को अपनी ओर खींचे, बांधे और उसकी रुचि व जिज्ञासा को बनाए रखे।
लेखिका ममता सिंह ने इससे आगे बढ़कर कहा कि आज फटाफट का जमाना है। हम भी उसी भीड़ का हिस्सा हैं। रेडियो में शार्टकट में काम हो रहा है। इसलिए तकनीकी को जानें, समझें मगर स्वयं को उसके हवाले न करें। सिनेमा में आए बदलाव पर पटकथा लेखिका अनु सिंह कहती हैं कि किसी भी फील्ड में रचनात्मकता को खारिज नहीं किया जा सकता। हमें चलन में बने रहने के लिए नई पीढ़ी के सामंजस्य बनाते हुए बाजार को भी समझते हुए चलना ही होगा, क्योंकि जब गंभीर साहित्य बनाम लोकप्रिय साहित्य की बात आती है तो पुरानी पीढ़ी को आज भी प्रेम चंद का किसान चाहिए। जबकि, नई पीढ़ी को उसके कालेज की हलचल।
पहले किताबें पढ़कर बुझती थी प्यास
पहले कहानी, उपन्यास, कविताएं आदि पढ़कर लगता था कि जिज्ञासा की प्यास बुझ गई। लेखिका गगन गिल इस लाइन को आगे बढ़ाती हुई कहती हैं कि इन विधाओं में हमें सरलीकरण से बचना चाहिए। सृजनात्मक चैलेंज को निभाती हुई किसी भी कृति की स्वीकार्यता हमेशा रहेगी। आज हो यह रहा है कि कथा, कहानी आदि की शुरुआत में ही पता चल जाता है कि आगे निष्कर्ष क्या है।
हमारा पाठक निष्कर्ष पर पहुंचना तो चाहता है, लेकिन इतनी सरलता से नहीं। यानी शुरुआत में नहीं, बल्कि अंत में पहुंचे तो साहित्य सार्थक। साहित्य की किसी भी विधा में जब अंत तक बांधे रखने की रचनात्मकता नहीं बनी रहेगी तो संकट आएगा।
लेखिका मधु का मत था कि भारी-भरकम शब्द व भाषा से नई पीढ़ी भाग जाएगी। आज बच्चे मैं नहीं जानता कहने के बजाय आइडीके (आइ डोंट नो) जैसा शार्ट फार्म चाहते हैं। इसलिए हमें उनके आइडीके में भी शामिल होना पड़ेगा और उन्हें सरल साहित्य से गंभीर की ओर प्रेरित भी करना होगा।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।