उत्तराखंड में 11 दिन बाद मनाई जाती है दीवाली, क्या है इगास? जिसमें बिखरेगी पहाड़ी संस्कृति की छटा
उत्तराखंड में दीपावली के 11 दिन बाद इगास मनाया जाता है, जो पहाड़ी संस्कृति का प्रतीक है। इस दिन घरों को सजाया जाता है, विशेष पकवान बनते हैं, और लोक नृत्य व संगीत का आयोजन होता है। पूरे क्षेत्र में उत्सव का माहौल रहता है और लोग आपस में खुशियां बांटते हैं।

ढोल दमाऊं व मशकबीन की धुनों पर लोकनृत्य संग होगा भेलो नृत्य। आर्काइव
जागरण संवाददाता, देहरादून । उत्तराखंड में लोकपर्व इगास शनिवार को धूमधाम से मनाया जाएगा। दून में भी इसका उल्लास देखने को मिलेगा। विभिन्न सामाजिक संगठनों की ओर से इगास कार्यक्रम में ढोल दमाऊं की धुनों पर लोग पारंपरिक नृत्य के साथ भैलो खेलते नजर आएंगे। पहाड़ के गांव से भैलो के लिए चीड़ के छील, पारंपरिक वाद्य यंत्र मंगाए गए हैं। खास बात यह भी है कि पकोड़े-स्वाले के साथ ही कई पारंपरिक व्यंजन का स्वाद मिलेगा।
इस अवसर पर लोक संस्कृति के लिए कार्य करने वालों को भी सम्मानित किया जाएगा। दीपावली के 11वें दिन लोकपर्व इगास यानी बूढ़ी दिवाली मनाने की परंपरा है। युवा पीढ़ी को पहाड़ की परंपरा व लोक संस्कृति से रूबरू कराने के लिए विभिन्न संगठनों ने तैयारी पूरी कर ली है। इस दिन पारंपरिक पकवान बनाए जाएंगे साथ ही स्थानीय देवी देवताओं की पूजा होगी। रात को ढोल दमाऊं की धुन पर पारंपरिक भैलो नृत्य खेला जाएगा।
उत्तराखंड संस्कृति, साहित्य एवं कला परिषद की ओर से मुख्यमंत्री आवास में इगास कार्यक्रम होगा। परिषद की उपाध्यक्ष मधु भट्ट ने बताया कि उत्तराखंड की लोक संस्कृति, लोकनृत्य, व पारंपरिक वेशभूषा की झलक देखने को मिलेगी। इसके अलावा स्वाले व पकोड़ी बनाई जाएगी। शहीद स्मारक परिसर में उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी मंच की ओर से इगास पर्व मनाया जाएगा। यहां परंपरिक व्यजंनों की महक बिखरेगी। मंच के प्रदेश प्रवक्ता प्रदीप कुकरेती ने बताया कि अच्छी बात है कि इस पर्व को लेकर अब युवा पीढ़ी भी जागरूक हो रही है और जुड़ रही है। रात को भी लोग यहां भैलो खेलेंगे। धाद की ओर से भी इगास मनाई जाएगी।
ऐसा पर्व जहां नहीं होती आतिशबाजी
लोकपर्व इगास पर लोकनृत्य व भैलो खेला जाता है। पर्व की खास बात यह है कि आतिशबाजी करने के बजाय लोग रात के समय पारंपरिक भैलो खेलते हैं। पहले पहाड़ में लोग इसे भव्य रूप में मनाते थे लेकिन पलायन होने से शहरों में बसे लोग इस परंपरा को आगे बढाएंगे। इसलिए शहरों में इगास पर्व मनाने जाने लगा है।
मवेशियों को दिया जाता है पौष्टिक आहार
इस दिन मवेशियों के लिए भात, झंगोरा का पींडू (पौष्टिक आहार) तैयार किया जाता है। उनका तिलक लगाकर फूलों की माला पहनाई जाती है। जब मवेशी पींडू खा लेते हैं तब उनको चराने वाले या गाय-बैलों की सेवा करने वाले बच्चे को पुरस्कार दिया जाता है।
इगास मनाने की यह है मान्यता
आचार्य शिव प्रसाद ममगाईं के अनुसार, पहाड़ में एकादशी को इगास के नाम से जानते हैं। एक मान्यता के अनुसार भगवान राम के अयोध्या लौटने की सूचना गढ़वाल में 11 दिन बाद मिली थी। इसलिए यह पर्व दीपावली के 11वें दिन में मनाया जाता है। एक अन्य मान्यता है कि दीपावली के समय गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट, तिब्बत का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त कर दीपावली के ठीक 11वें दिन गढ़वाल सेना अपने घर पहुंची थी।
चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से बनाया जाता है भैलो
इगास के दिन भैलो खेलने की परंपरा है। भैलो चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से बनाया जाता है। जो ज्वलनशील होती है। इसे छिल्ला भी कहा जाता है। जहां चीड़ के जंगल न हों वहां लोग देवदार, भीमल अथवा हींसर की लकड़ी आदि से भी भैलो बनाते हैं। जिन्हें टुकड़े कर एक साथ रस्सी व जंगली बेलों से मजबूती से बांधा जाता है। फिर इसे जला कर घुमाते हैं।
देवोत्थान एकादशी पर मांगलिक कार्य
     देवउठनी अथवा देवोत्थान एकादशी शनिवार से शुरू होगी। इस दौरान विवाह, मुंन, ग्रह प्रवेश आदि मांगलिक कार्य भी शुरू हो जाएंगे। मान्यता के अनुसार, देवशयनी एकादशी से चार महीने के लिए भगवान विष्णुयोग निद्रा में चले जाते हैं। देवशयनी एकादशी के बाद शनिवार को देवोत्थान एकादशी पर लोग भगवान विष्णु के साथ सभी देवों की आराधना भी करेंगे।

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।