सौ फीसद सटीक नहीं है गोबर से वन्यजीवों की पहचान, अध्ययन में हुआ ये खुलासा
जंगलों में बिखरे पड़े गोबर की पहचान से ही बता सकते हैं कि यह किस जानवर का है लेकिन पहली दफा इस बात पर सवाल उठाए गए हैं कि ऐसा आकलन सौ फीसद सटीक नहीं होता।
देहरादून, सुमन सेमवाल। विश्वभर में ऐसे तमाम वन्यजीव विशेषज्ञ हैं, जो दावा करते हैं कि वह जंगलों में बिखरे पड़े गोबर (मल) की पहचान से ही बता सकते हैं कि यह किस जानवर का है। हालांकि, पहली दफा इस बात पर सवाल उठाए गए हैं कि ऐसा आकलन सौ फीसद सटीक नहीं होता। आकलन पर सवाल उठाने वाला और कोई नहीं, बल्कि वन्यजीवों पर अध्ययन करने वाला चोटी का संस्थान भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआइआइ) है। संस्थान के वैज्ञानिकों व शोधार्थियों ने डीएनए सैंपलिंग के माध्यम से इस बात को साबित भी कर दिया है। इस संबंध में तैयार किए गए शोध पत्र को बुधवार को हिमालयन रिसर्च सेमिनार में भी प्रस्तुत किया गया।
डब्ल्यूआइआइ के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एस सत्यकुमार ने शोध पर प्रकाश डालते हुए बताया कि उत्तराखंड के भागीरथी बेसिन व हिमाचल प्रदेश के चंबा क्षेत्र से गुलदार (तेंदुआ) समेत कई अन्य वन्यजीवों के मल के 635 नमूने (सैंपल) एकत्रित किए गए।
इससे पहले मौके पर ही मल की पहचान कर यह आकलन किया गया कि यह किस जानवर का है। प्रयोगशाला में जब डीएनए सैंपल के परिणाम आए तो उससे स्पष्ट था कि मल को देखने के आधार पर की गई पहचान सौ फीसद सटीक नहीं है। क्योंकि इसमें काफी भिन्नता नजर आई। सिर्फ उत्तराखंड के क्षेत्र में भालुओं के डीएनए सैंपल व मल को देखने के आधार पर की गई पहचान में ही समानता मिली। इस अध्ययन में संस्थान की शोधार्थी अंशु पंवार, गुंजन गुलाटी समेत नितिन भूषण, रंजना पाल व एसके गुप्ता ने भी अहम भूमिका निभाई।
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लैब में सहेजे गए परिणाम
वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एस सत्यकुमार ने बताया कि डीएनए सैंपल के नमूनों को लैब में सहेजकर रख दिया गया है। यदि संबंधित क्षेत्र में सैंपल वाले किसी जानवर का शिकार होता है तो उसके मांस व लैंब में रखे गए परिणाम के आधार पर पहचान की जा सकती है। उन्होंने बताया कि इस अध्ययन के बाद वन्यजीवों की पहचान या गिनती करने के लिए डीएनए सैंपलिंग की अहमियत और बढ़ जाएगी।
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