उत्तराखंड में शिकार के तरीके नहीं सीख पा रहे गुलदार के शावक, जानिए वजह
उत्तराखंड में गुलदारों को लेकर चौंकाने वाली बात सामने आई है जो इनके बढ़ते हमलों के पीछे एक बड़ी वजह है। यहां गुलदार के शावक शिकार करने के तरीके नहीं सीख पा रहे हैं।
देहरादून, केदार दत्त। उत्तराखंड में गुलदारों का खौफ हर तरफ तारी है, फिर चाहे वह पहाड़ हो अथवा मैदान। मानव और गुलदार के बीच छिड़ी यह जंग अब चिंताजनक स्थिति में पहुंच चुकी है, जिसमें दोनों को ही कीमत चुकानी पड़ रही है। इस परिदृश्य के बीच गुलदारों को लेकर चौंकाने वाली बात सामने आई है, जो इनके बढ़ते हमलों के पीछे एक बड़ी वजह है। प्रसिद्ध शिकारी लखपत सिंह रावत के अध्ययन के मुताबिक यहां गुलदार के शावक शिकार करने के तरीके नहीं सीख पा रहे हैं।
तमाम गांवों में ये बात सामने आई कि वहां बंजर हो चुके खेतों में उगी लैंटाना समेत अन्य झाडिय़ों को गुलदारों ने अपना बसेरा बनाया है। इन क्षेत्रों में शिकार की कमी है। ऐसे मादा गुलदार अपने शावकों को शिकार करने के तौर-तरीके नहीं सिखा पा रही है।
गुलदारों के लगातार आबादी की तरफ रुख करने के साथ ही इनके बढ़ते हमलों ने राज्य में खासकर पर्वतीय क्षेत्रों की दिनचर्या को बुरी तरह प्रभावित की है। पहाड़ के गांवों में न घर-आंगन महफूज है और न खेत-खलिहान। यही नहीं, मैदानी क्षेत्रों में भी जगह-जगह गुलदारों ने नाक में दम किया हुआ है। मानव और गुलदार के बीच चल रही यह जंग अब अधिक तेज हो चली है। अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि प्रदेश में वन्यजीवों के हमलों की 80 फीसद से अधिक घटनाएं गुलदारों की हैं।
इस सबके मद्देनजर राज्य में वर्ष 2002 अब तक विभिन्न क्षेत्रों में 53 आदमखोर गुलदारों को ढेर कर जनसामान्य को इनके खौफ से मुक्ति दिलाने वाले लखपत सिंह रावत ने इसे लेकर अध्ययन भी किया। वह बताते हैं कि प्रदेश में गुलदारों की संख्या काफी ज्यादा है, जबकि उनके लिहाज से वासस्थलों में कम हैं।
अध्ययन में चौंकाने वाली बात ये सामने आई कि गांवों के नजदीक रहने वाले शावक शिकार करना नहीं सीख पा रहे। अल्मोड़ा, बागेश्वर, पौड़ी समेत अन्य जिलों के गुलदार प्रभावित क्षेत्रों ये तथ्य उजागर हुआ।
यह भी पढ़ें: भारत में ज्यादा उम्र वाले शेर ही होते हैं मुखिया, अफ्रीका में सब बराबर; पढ़िए खबर
चमोली जिले के गैरसैंण में प्रभारी उप शिक्षा अधिकारी के पद पर कार्यरत लखपत सिंह के अनुसार पहाड़ के गांवों में पलायन के चलते जनसंख्या घटी है। इसका असर खेती पर पड़ा और बड़ी संख्या में खेत बंजर में तब्दील हुए हैं। इन खेतों में लैंटाना समेत दूसरी झाडिय़ां उग आई हैं, जो गुलदारों का बसेरा बनी हैं। इन्हीं झाडिय़ों में शावकों का जन्म हो रहा है।
यह भी पढ़ें: बाघ संरक्षण: मोदी की उम्मीदों को पंख लगाएगा उत्तराखंड, पढ़िए पूरी खबर
वह बताते हैं कि ढाई-तीन साल तक शावक अपनी मां के साथ ही रहते हैं और उससे ही सीखते हैं। ऐसे क्षेत्रों में शिकार की कमी के कारण मादा गुलदार शिकार के तौर-तरीके शावकों तक नहीं पहुंचा पा रही। शावक लगातार मनुष्य को देखते रहते हैं और वयस्क होने पर मनुष्य पर हमला कर देते हैं। लखपत कहते हैं कि इस समस्या से पार पाने के लिए गंभीरता से कदम उठाने की जरूरत है।
यह भी पढ़ें: इन दो बड़ी नदियों में खनन के चलते घट रही हैं डॉल्फिन, जानिए