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    जंगल की बात : विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में लगातार आदमखोर होते गुलदार

    By Sunil NegiEdited By:
    Updated: Sat, 31 Jul 2021 03:27 PM (IST)

    विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में जहां पहाड़ जैसी समस्याएं मुंहबाए खड़ी हैं वहीं गुलदार के निरंतर गहराते खौफ ने यहां के निवासियों की दिनचर्या को बुरी तरह प्रभावित किया है। अब तो हालत ये चले हैं कि कब कहां कौन सा गुलदार आमदखोर हो जाए कहा नहीं जा सकता।

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    विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में लगातार आदमखोर होते गुलदार।

    केदार दत्त, देहरादून। विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में जहां पहाड़ जैसी समस्याएं मुंहबाए खड़ी हैं, वहीं गुलदार के निरंतर गहराते खौफ ने यहां के निवासियों की दिनचर्या को बुरी तरह प्रभावित किया है। अब तो हालत ये चले हैं कि कब, कहां कौन सा गुलदार आमदखोर हो जाए, कहा नहीं जा सकता। आंकड़ों पर निगाह दौड़ाएं तो वर्ष 2006 से अब तक आदमखोर घोषित 74 गुलदार ढेर किए जा चुके हैं। इनमें वो नौ गुलदार भी शामिल हैं, जो इस साल अब तक ठिकाने लगाए गए। इसके अलावा पांच गुलदारों को पिंजरों में कैद करने में भी कामयाबी मिली। फौरी राहत के मद्देनजर जनसामान्य के लिए खतरा बने गुलदार को आदमखोर घोषित करना ठीक हो सकता है, मगर यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। फिर ये समस्या तो सूबे को विरासत में मिली है। बावजूद इसके अभी तक इसका निदान न होना सिस्टम की कार्यशैली पर सवाल तो खड़े करता ही है।

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    बाघ सुरक्षा की चुनौती

    राष्ट्रीय पशु बाघ के संरक्षण में राज्य का योगदान किसी से छिपा नहीं है। संरक्षण के बेहतर प्रयासों का ही नतीजा है कि बाघों की संख्या के लिहाज से उत्तराखंड देश में तीसरे स्थान पर है। कार्बेट और राजाजी टाइगर रिजर्व के साथ ही तराई, भाबर क्षेत्र के 12 वन प्रभागों में बाघों का कुनबा खूब फल-फूल रहा है। अब बाघों ने शिखर की ओर भी रुख किया है। केदारनाथ, मध्यमेश्वर, अस्कोट में इनकी मौजूदगी के प्रमाण मिले हैं। जाहिर है कि अब इनकी सुरक्षा के साथ ही इनसे जनता की सुरक्षा की चुनौती ज्यादा बढ़ गई है। यह ठीक है कि अभी तक बाघों के हमले बेहद कम हैं। लेकिन, जिस हिसाब से ये बढ़ रहे हैं, उनके लिए उसी अनुपात में वासस्थल भी होने चाहिए। यदि इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो इनका मानव से टकराव बढ़ सकता है। साथ ही इन्हें शिकारी-तस्करों से भी बचाना है।

    कुर्री की जगह घास

    पर्यावरण के लिए बेहद खतरनाक मानी जाने वाली झाड़ी प्रजाति कुर्री (लैंटाना कमारा) से उत्तराखंड के जंगल भी सहमे हुए हैं। तराई-भाबर से लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्र के जंगलों तक इस अनुपयोगी झाड़ी ने दस्तक दी है। निरंतर फैलने और अपने इर्द-गिर्द दूसरी वनस्पतियों को न पनपने देने के कारण कुर्री वनों पर भारी पड़ रही है। कार्बेट और राजाजी टाइगर रिजर्व में ही घास के मैदानों पर इसने कब्जा जमाया है। हालांकि, अब कुर्री उन्मूलन को कदम उठाए जा रहे हैं। इसे उखाड़कर इसकी जगह घास की प्रजातियां रोपी जा रही हैं। स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप घास प्रजातियों की उपलब्धता रहे, इसके लिए लगभग 40 नर्सरियों में पौध विकसित की जा रही हैं। जाहिर है कि इससे घास की पौध की कमी नहीं रहेगी। जरूरत इस बात की है कि पर्यावरण संरक्षण के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण कुर्री उन्मूलन अभियान को पूरी गंभीरता के साथ धरातल पर उतारा जाए।

    निखरी फूलों की छटा

    विश्व धरोहर में शुमार फूलों की घाटी राष्ट्रीय उद्यान की रंगत इन दिनों देखते ही बनती है। लगभग साढ़े 12 हजार फीट की ऊंचाई पर 87.5 वर्ग किमी क्षेत्र में फैली इस घाटी में चारों तरफ खिले रंग-बिरंगे फूलों की छटा बरबस ही आकर्षित करती है। यह क्षेत्र फ्लोरा व फौना के लिहाज से तो समृद्ध है ही, परिंदों व जीव-जंतुओं की भी तमाम प्रजातियां यहां पाई जाती हैं। विविधता से भरी फूलों की घाटी को यूनेस्को ने वर्ष 2005 में विश्व धरोहर घोषित किया था। घाटी में प्राकृतिक रूप से पांच सौ से ज्यादा प्रजाति के फूल खिलते हैं। वर्तमान में भी वहां करीब साढ़े तीन सौ प्रजाति के फूल खिले हैं। ये बात अलग है कि कोरोना संक्रमण के कारण पिछले साल से फूलों की घाटी में प्रकृति प्रेमियों की आवाजाही पर असर पड़ा है। इसे देखते हुए अब परिस्थितियां सामान्य होने का इंतजार किया जा रहा है।

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