ऊर्जा, रोजगार और स्वच्छता का मजबूत आधार बना गोबर-धन
उत्तराखंड में गोबर और गीला कचरा अब ग्रामीण विकास का आधार बन रहा है। गोबर गैस संयंत्रों की संख्या में वृद्धि के साथ, राज्य ने बिहार, यूपी और गुजरात जैस ...और पढ़ें

देहरादून के विकासनगर क्षेत्र स्थित भगलाना गांव में लगा बायोगैस प्लांट। वहीं, डोईवाला विकासखंड स्थित संगतियावाला गांव में लगा बायोगैस प्लांट।
अश्वनी त्रिपाठी, जागरण देहरादून: पहाड़ के गांवों में कभी उपेक्षित समझा जाने वाला गोबर व गीला कचरा अब विकास की नई कहानी लिख रहा है। जो अपशिष्ट कल तक पर्यावरण के लिए चुनौती था, वही अब उत्तराखंड के ग्रामीण अंचलों में ऊर्जा, रोजगार और स्वच्छता का मजबूत आधार बन गया है।
गोबर-धन को अपनाने में उत्तराखंड के जोश ने बिहार, यूपी व गुजरात समेत कई राज्यों को पीछे छोड़ दिया है, गोबर गैस संयंत्रों की संख्या जहां अन्य राज्यों में
कम होती जा रही है, वहीं उत्तराखंड में साल दर साल यह संयंत्र बढ़ रहे हैं। पहाड़ के बाशिंदों ने गोबर को अपनी खुशहाली का जरिया बना लिया है।
बायोगैस प्लांट अब वैकल्पिक ऊर्जा का साधन ही नहीं, ग्रामीण आर्थिकी का प्रभावी विकास माडल भी बन चुके हैं। प्लांट में गोबर, गीला कचरा और कृषि अवशेष से स्वच्छ ऊर्जा, जैविक खाद और स्थानीय रोजगार का सृजन करने में राज्य को उल्लेखनीय सफलता मिली है। गोबर च गीले कचरे के सही प्रयोग से पहाड़ों की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नई दिशा मिली है। बायोगैस के क्षेत्र में उत्तराखंड कई राज्यों के लिए रोल माडल बनकर उभरा है।

वर्तमान में राज्य में 8,362 बायोगैस प्लांट स्थापित हैं। कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में भी राज्य ने गोबर-धन और बायो-एनर्जी के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है। बायोगैस प्लांट से मिलने वाली रसोई गैस ने ग्रामीण परिवारों के ईंधन खर्च को काफी कम किया है।
एलपीजी सिलेंडर, लकड़ी और कोयले पर निर्भरता घटने से परिवारों की बचत बढ़ी है। कई गांवों में बायोगैस से बिजली उत्पादन भी किया जा रहा है, जिससे ऊर्जा पर होने वाला खर्च घटकर सीधे गांव की अर्थव्यवस्था को मजबूत कर रहा है।
कचरा बना संसाधन, स्वच्छता को नए आयाम
उत्तराखंड के गांवों में प्रतिदिन करीब 880 टन ठोस कचरा निकलता है, जिसमें लगभग 63 प्रतिशत जैविक कचरा होता है। पहले यही कचरा गांवों में गंदगी, दुर्गंध और बीमारियों की वजह बनता था, लेकिन बायोगैस प्लांट ने इसे ऊर्जा और खाद में बदलने का रास्ता दिखाया है। गोबर, रसोई कचरा और कृषि अवशेष अब स्रोत पर ही निस्तारित हो रहे हैं। इससे पंचायतों पर कचरा ढोने और डंपिंग का बोझ कम हुआ है। गांवों की स्वच्छता में उल्लेखनीय सुधार आया है।
किसानों की आय और मिट्टी दोनों को लाभ
बायोगैस उत्पादन के बाद बचने वाली स्लरी कचरा नहीं, बल्कि उच्च गुणवत्ता की जैविक खाद होती है, जो किसानों की आय और मिट्टी दोनों को समृद्ध बना रही है। इससे पहाड़ों पर खेती की लागत घट रही है और उत्पादन में सुधार हो रहा है। पशुपालकों के लिए गोबर अब अपशिष्ट नहीं, बल्कि कमाई का साधन बन चुका है।

15 साल में एक पाई खर्च नहीं
देहरादून के कालूवाला गांव के रहने वाले अरविंद चौहान बताते हैं कि उनके घर में 15 साल पहले बायोगैस कनेक्शन लगाया गया था। इस अवधि में उनके घर में घरेलू गैस पर कोई भी खर्च नहीं किया गया। उन्होंने दो गायें पाल रखी हैं। उनसे दिनभर में करीब 45 किलो गोबर मिलता है, जिससे तीन घन मीटर का ड्रम आसानी से भर जाता है। ईधन खर्च करने के बाद उन्हें भरपूर स्लरी भी मिल जाती है, जो फसलों के लिए सोना है। उन्होंने बताया, पिछले 15 सालों में इस प्लांट ने उन्हें आर्थिक रूप से बड़ी राहत पहुंचाई।
उत्तराखंड से पीछे क्यों रह गए कई राज्य
कई राज्य उत्तराखंड से पीछे रह गए, क्योंकि वे बायोगैस को पशुपालन से प्रभावी ढंग से नहीं जोड़ पाए। उत्तराखंड के गांवों में पशुपालन की परंपरा ने गोबर की नियमित उपलब्धता कराई, जिससे संयंत्र लगातार चलते रहे। पंचायतों, स्वयं सहायता समूहों और पशुपालकों की भागीदारी के कारण गोबर व गीले कचरे का स्रोत-स्तर पर संग्रह संभव हुआ।
किस राज्य में कितने बायोगैस प्लांट
| राज्य | बायोगैस प्लांट |
| उत्तराखंड | 8,362 |
| ओडिशा | 5,966 |
| गुजरात | 5,427 |
| उत्तर प्रदेश | 3,594 |
| हरियाणा | 3,487 |
| राजस्थान | 2,404 |
| तमिलनाडु | 1,740 |
| पश्चिम बंगाल | 851 |
| झारखंड | 545 |
| हिमाचल प्रदेश | 294 |
| बिहार | 236 |
( नोट: आंकड़े नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय की ओर से जारी किए गए हैं )
केंद्र सरकार बायोगैस संयंत्रों के लिए केंद्रीय वित्तीय सहायता प्रदान कर रही है। दो से चार घनमीटर क्षमता पर 22,000 और 20 से 25 घनमीटर क्षमता पर 70,400 तक का अनुदान दिया जा रहा है। स्वच्छता से जुड़े संयंत्रों और स्लरी फिल्टर यूनिट पर अतिरिक्त सब्सिडी दी जा रही है।
मनोज कुमार, मुख्य परियोजना अधिकारी, उत्तराखंड नवीकरणीय ऊर्जा विकास अभिकरण
बायोगैस परियोजनाओं ने उत्तराखंड की ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्था को नई दिशा दी है। गोबर, जैविक कचरे और कृषि अवशेषों से ऊर्जा उत्पादन ने ईंधन पर निर्भरता घटाई है, वहीं किसानों व स्वयं सहायता समूहों की आय बढ़ी है। बायोगैस से बिजली, खाना पकाने की गैस और जैविक खाद उपलब्ध होने से आर्थिकी को बढ़ावा व कचरा प्रबंधन सुधरने से पर्यावरण संरक्षण को बल मिला है। बायोगैस उत्तराखंड को आत्मनिर्भर और हरित अर्थव्यवस्था की ओर ले जाने में अहम भूमिका निभा रही है।
-आर मीनाक्षी सुंदरम, सचिव- ऊर्जा

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।