जागरण फिल्म फेस्टिवल में पहुंचे पूर्व सीएम हरीश रावत, 'कारा: ए कस्टम' फिल्म देख छलके आंसू
पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने जागरण फिल्म फेस्टिवल में 'कारा: ए कस्टम' फिल्म देखी। उन्होंने कहा कि नशा गांव, समाज और परिवार को बर्बाद कर रहा है। 'जमुना' की कहानी कई बेटियों की पीड़ा दर्शाती है। रावत ने फिल्म के कलाकारों और दैनिक जागरण को बधाई दी। उन्होंने फिल्म को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने और नशाखोरी के खिलाफ अभियान चलाने की बात कही।

पूर्व सीएम हरीश रावत के जेएफएफ में 'कारा: ए कस्टम' फिल्म देख आंसू छलके। आर्काइव
जागरण संवाददाता, देहरादून। जागरण फिल्म फेस्टिवल (जेएफएफ) में फिल्म 'कारा: ए कस्टम' देखने पहुंचे पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने कहा कि नशा जिस तरह से गांव, समाज और परिवार को बर्बाद कर रहा है, यह फिल्म उसके विरोध में जबरदस्त हस्ताक्षर है। 'जमुना' की व्यथा हमारी बहुत सारी बेटियों की कथा है। जमुना बलिदान हो गई, लेकिन आज हमारी कई बेटियां घुट-घुटकर मर जाती है और कई परिवार बर्बाद हो जाते हैं। नशाखोरी का बढ़ता चलन परिवारों को रुलाने का काम कर रहा है।
रविवार को सिल्वर सिटी सिनेमाज में फिल्म देखते समय पूर्व मुख्यमंत्री के आंसू छलक पड़े। फिल्म देखने के बाद उन्होंने सभी कलाकारों से मिलकर उनकी सराहना की और निर्माता-निदेशक सुनील बडोनी समेत पूरी टीम को ऐसा सार्थक सिनेमा बनाने के लिए बधाई दी। साथ ही कहा कि यह प्लेटफार्म उपलब्ध कराने के लिए दैनिक जागरण परिवार भी बधाई का पात्र है। 'कारा: ए कस्टम' जैसी फिल्में दिखाने के लिए और प्रयास होने चाहिएं। अन्य जगह भी थियेटर के माध्यम से इस तरह की फिल्में दिखाई जानी चाहिएं। उन्होंने कहा, मैं भी अपने स्तर से प्रयास करूंगा कि यह फिल्म अधिक से अधिक लोग देखें और नशाखोरी के खिलाफ अभियान चला सकें।
पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि फिल्म देख कर लगा जिंदगी के वास्तविक कथानक को साक्षात देख रहे हैं। उन्होंने कहा कि लोक प्रथाओं के जो उज्ज्वल पक्ष है, वह भी फिल्म के माध्यम से दिखाए जाने चाहिएं। उन्होंने फिल्म के कलाकारों के बारे में पूछा तो पता चला कि वे पूर्व में भी कई फिल्में कर चुके हैं। इस पर हरीश रावत मुस्कराते हुए बोले, हम लोग अपनी दुनिया में मस्त रहते हैं, इसलिए अच्छी दुनिया को नहीं देख पाते।
अखबार में छपी खबर से मिला आइडिया
हरीश रावत के एक प्रश्न पर फिल्म के निर्माता-निर्देशक सुनील बडोनी ने बताया कि वर्ष 2005 में अखबार में एक खबर छपी थी, जिसका टाइटल था 'कारा से चढ़ता पारा'। तभी उन्हें ख्याल आया कि इस विषय पर समाज को जागरूक करने वाली अच्छी फिल्म बन सकती है।

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