Exclusive Interview : 'अब भी नहीं चेते तो शून्य हो जाएगा हिमालय का अस्तित्व'
Save Himalaya उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की मांग उठी ही इसलिए थी क्योंकि उत्तर प्रदेश का यह हिस्सा विकास के पैमाने पर अत्यंत पिछड़ा हुआ था। दूसरी ओर हिमाचल बहुत पुराना राज्य है। अक्सर कहा जाता रहा है कि उत्तराखंड को भी हिमाचल की तरह विकास की राह पर आगे बढ़ाना है। अब आज बड़ा सवाल है कि क्या हिमाचल प्रदेश हिमालयी राज्यों के लिए आदर्श माडल है।

कल ही (नौ सितंबर) हिमालय दिवस मनाया गया है। प्रत्येक वर्ष की तरह इस बार भी उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे हिमालयी राज्यों के भविष्य को लेकर खूब विचार मंथन हुआ। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भी इन राज्यों के शहरों की धारण क्षमता निर्धारित करने का निर्देश दिया है। स्पष्ट है कि इन राज्यों में आर्थिकी बढ़ाने की चाह में पारिस्थितिकी की अनदेखी की जा रही है।
भारी बरसात के बीच साल दर साल बढ़ते भूस्खलन आने वाले बड़े खतरे का संकेत दे रहे हैं। हिमालय इन्वायरनमेंट स्टडीज एंड कंजर्वेशन आर्गनाइजेशन (हेस्को) के संस्थापक पद्मभूषण डा अनिल प्रकाश जोशी का कहना है कि जिस तरह का वैश्विक परिदृश्य है, उसमें साफ है कि आने वाले समय में अतिवृष्टि का क्रम थमने वाला नहीं है। यदि अब भी हम नहीं चेते, तो हिमालय का अस्तित्व शून्य होते देर नहीं लगेगी। पारिस्थितिकी में बदलाव और इससे हिमालय पर पड़ रहे प्रभाव को लेकर डॉ अनिल प्रकाश जोशी से दैनिक जागरण के स्टेट ब्यूरो चीफ विकास धूलिया ने विशेष बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत के प्रमुख अंशः
उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश जैसे हिमालयी राज्यों में भारी वर्षा, भूधंसाव और भूस्खलन की घटनाओं में बढ़ोतरी के लिए किस तरह की परिस्थितियां जिम्मेदार हैं?
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वैश्विक स्तर पर देखें तो वर्ष 1990 के बाद अमेरिका, चीन व भारत में आपदाएं अधिक आई हैं। देश में हिमालयी राज्यों में सर्वाधिक आपदाएं आई हैं। यह गंभीरता से चिंतन व मनन का समय है। प्रश्न यह है कि आर्थिकी को बढ़ाने के लिए हमने जो ढांचागत विकास किया, वह यहां की पारिस्थितिकी के अनुरूप है अथवा नहीं।
थोड़ा पीछे मुड़ते हैं, हिमाचल की आपदा उत्तराखंड की वर्ष 2013 की केदारनाथ त्रासदी से मिलती-जुलती है। यद्यपि, केदारनाथ त्रासदी के रास्ते में ढांचागत विकास कम था, जबकि हिमाचल में यह अधिक रहा है। मंडी, शिमला जैसे तथाकथित विकसित शहरों पर अधिक मार पड़ी है।
हिमाचल को दो भागों, शहरी व गांव के हिस्सों में बांटकर देखें तो प्रकृति ने वहीं कहर बरपाया है, जहां ढांचागत विकास अधिक था। वर्षा कहीं भी हुई, चोट इसी पर पड़ी।
क्या अब भी हिमाचल को हिमालयी राज्यों के दृष्टिकोण से माडल कहा जा सकता है?
विकास किसी भी राज्य या देश के लिए आवश्यक है, लेकिन यह भी देखना होगा कि कहीं यह विनाश का कारण तो नहीं बन रहा है।
उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की मांग उठी ही इसलिए थी, क्योंकि उत्तर प्रदेश का यह हिस्सा विकास के पैमाने पर अत्यंत पिछड़ा हुआ था। दूसरी ओर, हिमाचल बहुत पुराना राज्य है। अक्सर कहा जाता रहा है कि उत्तराखंड को भी हिमाचल की तरह विकास की राह पर आगे बढ़ाना है।
अब आज बड़ा सवाल है कि क्या हिमाचल प्रदेश हिमालयी राज्यों के लिए आदर्श माडल है। सब इन्कार करेंगे, क्योंकि विकास अनियोजित रहा, जिससे पर्यावरण को क्षति पहुंची।
हिमाचल आर्थिकी व पर्यटन का माडल रहा है और उत्तराखंड भी इसी राह पर दौड़ लगा रहा है। हिमाचल ने अपनी प्रगति का विश्लेषण हिमालयी और पर्यावरण के दृष्टिकोण से संवेदनशील राज्य के रूप में नहीं किया, बल्कि केवल आर्थिकी को ही विकास की धुरी बनाया।
क्या पारिस्थितिकी में हो रहे बदलाव से आपदाओं में वृद्धि हो रही है?
कुछ ऐसा ही है। पहले भी प्राकृतिक आपदाएं आईं, लेकिन पिछले कुछ समय से पारिस्थितिकी के महत्व को नहीं समझा गया। पर्वतीय शहरों को छोड़िये, क्या दिल्ली, मुंबई में भारी वर्षा के कारण अत्यधिक जलभराव नहीं हुआ। 15-20 वर्ष पहले वर्षा का पैटर्न ऐसा होता था कि सब जगह लगभग समान वर्षा होती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है।
अब एक ही स्थान पर अनुमान से अधिक वर्षा हो रही है। आइपीसीसी (इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पारिस्थितिकी में बदलाव का अधिक संकट पर्वतीय क्षेत्रों को झेलना पड़ेगा। आपने महसूस किया होगा कि अब आर्द्रता अधिक रहती है। रात को तापमान गिरने से इसीलिए अधिक वर्षा होती है।
इस तरह की प्राकृतिक आपदाओं को रोकने या नियंत्रित करने के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं?
ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्र गर्म हो रहे हैं। ऐसे में भारी वर्षा, असमय वर्षा, सूखे जैसी स्थिति आगे भी बने रहने से इन्कार नहीं किया जा सकता। हिमाचल, उत्तराखंड में जो कुछ घटा, वह इस तरफ इशारा करता है कि यदि पारिस्थितिकी की अनदेखी की गई तो आने वाले समय में नियोजित विकास को भी तबाही झेलनी पड़ सकती है।
इसे देखते हुए यह विश्लेषण करना होगा कि हमारी प्रगति पारिस्थितिकी के अनुरूप है अथवा नहीं। फिर इसके आधार पर कदम उठाने होंगे।
साथ ही आमजन को अपनी जान की चिंता करनी होगी और ऐसा कोई कदम उठाने से परहेज करना होगा, जो तबाही का कारण बने। पिछले 30 वर्षों में शिमला का कितना फैलाव हुआ, जहां-तहां निर्माण खड़े कर दिए गए। जोशीमठ की बात करें, कैसे बहुमंजिले भवन बन गए। पर्यावरण छोड़िए, अपने जीवन के बारे में तो चिंता कीजिये।
क्या हिमालयी राज्यों के लिए विकास का पैमाना नए सिरे से निर्धारित करने की आवश्यकता है?
अब समय आ गया है कि केंद्र सरकार व प्रधानमंत्री कार्यालय को हिमालयी राज्यों के संतुलित विकास के लिए समग्र योजना पर ध्यान देना होगा। हिमालय को होने वाले नुकसान से पूरा देश प्रभावित होगा।
आर्थिकी में जीडीपी की गणना की जाती है, इसे विकास का पैमाना बनाया जाता है, लेकिन कभी आपने पर्यावरणीय आकलन किया है, इसीलिए सकल पर्यावरणीय उत्पाद (जीईपी) की बात हो रही है।
विकास का माडल स्थानीय होना चाहिए। जितनी बाहरी निर्भरता कम होगी, उतना स्थायित्व अधिक रहेगा। स्थानीय आर्थिकी का पर्यावरण के साथ समन्वय स्थापित करना होगा। पर्यटन बहुत बड़ा स्रोत है आर्थिकी का, लेकिन हिमालयी राज्यों के संदर्भ में इस दृष्टिकोण को बदलना होगा।
नया निर्माण आजकल विकास का पैमाना बन गया है, लेकिन क्या अनियोजित निर्माण विनाश, आपदा को आमंत्रित कर रहा है?
मैंने पहले भी कहा है कि आर्थिकी व पारिस्थितिकी में समन्वय होना चाहिए और हिमालयी राज्यों के लिए यह बेहद जरूरी है।
धारण क्षमता का आकलन किए बगैर निर्माण और अनियोजित ढंग से हो रहे कार्यों का क्या हश्र होता है, यह हम सबने देखा है। मैंने पूर्व में शहरों, गांवों समेत सभी क्षेत्रों की धारण क्षमता के आकलन पर जोर दिया था। अब भी कह रहा हूं कि हर क्षेत्र की धारण क्षमता सुनिश्चित की जानी चाहिए।
विकास का पैमाना स्थानीय संसाधनों, जलवायु व कौशल तीनों को जोड़कर तय होना चाहिए। इससे हम पारिस्थितिकी से जुड़ेंगे और आर्थिकी भी चलेगी।
यदि हम सड़क बना रहे हैं तो इसके मानक बदलने होंगे। होड़ से बचना होगा। अभी एक माह में 50 किमी सड़क बना रहे हैं तो इसे पांच किमी करना होगा। धीरे-धीरे आगे बढ़ना होगा, लेकिन यह सब स्थानीय परिस्थिति के अनुरूप ही होना चाहिए।
इसके साथ ही निर्माण शैली को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। पर्यटन में बदलाव करना होगा। आज होता यह है कि पर्यटक आते हैं और कई तरह का प्रदूषण छोड़ जाते हैं। होना यह चाहिए कि हिमालयी क्षेत्र में आने वाला पर्यटक सब कुछ बाहर ही छोड़कर यहां प्रवेश करे। भोजन समेत सभी जरूरी वस्तुएं स्थानीय स्तर पर उपलब्ध हैं, उनका आनंद लें पर्यटक। यह स्वास्थ्यवद्र्धक के साथ ही स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ाने वाला भी होगा।
पर्वतीय क्षेत्र में विकास कार्यों और पर्यावरण में समन्वय बनाने के लिए क्या स्थानीय ससांधनों को वरीयता दी जानी चाहिए ?
निश्चित रूप से। पूर्वोत्तर राज्यों में देखिये, भवन बांस से निर्मित होते हैं। पर्यावरण संरक्षण के साथ ही आपदा की स्थिति में नुकसान कम और निर्माण सामग्री पूरी स्थानीय।
पहाड़ की परिस्थितियों के अनुरूप निर्माण की शैली बदलनी होगी। भविष्य में भूकंप, बाढ़ तो आएगी ही, भारी वर्षा होगी ही, इन पर आपका नियंत्रण नहीं है, नियंत्रण है तो आपकी निर्माण शैली पर, शहरों की धारण क्षमता पर, इस ओर सिस्टम को ध्यान देना होगा, नियमों का सख्ती से अनुपालन कराना होगा।
इसके लिए सरकार से अधिक हम स्वयं दोषी हैं। अगर समाज स्वयं संसाधनों, पर्यावरण के प्रति चेता हुआ नहीं हैं तो कुछ नहीं हो सकता। प्रकृति तो अपना काम कर रही है। निर्माण हो रहे हैं, लेकिन जल निकासी की कोई व्यवस्था नहीं। कोटद्वार में क्या हुआ, नदियों के किनारे अनियोजित निर्माण ने नदी का रास्ता रोका, लेकिन पानी तो बहाव लेगा ही।
नतीजतन, बाढ़ की नौबत आ गई। पहाड़ में निर्माण कार्य पर सर्वाधिक ध्यान देना होगा। भूगर्भीय स्थिति की जानकारी लेनी होगी। आपदा, बाढ़, भूस्खलन के लिहाज से संवेदनशील स्थानों को चिह्नित करना होगा।
साथ ही स्थानीय निवासियों की सोच बदलनी होगी। सरकार नुकसान की भरपाई करेगी, लेकिन यह तो निर्धारित मानकों के अनुसार ही होगी न। पहले पर्वतीय क्षेत्र में ऐसी घटनाएं नहीं हुईं तो हम चेते नहीं, अब घटनाएं हो रही हैं तो हमें भी चेतना होगा।
चुनाव चाहे कोई भी हों, इनमें आपदा का मुद्दा नेपथ्य में रहा है, इस पर क्या कहेंगे?
आप ही बताइये, आपदा, नदियां, जंगल कब चुनाव के दौरान मुद्दा बने। इन्फ्रास्ट्रक्चर से हटकर हम प्रकृति, पर्यावरण को ध्यान में रखते तो बेहतर होता।
राजनीति के दृष्टिकोण से हवा, मिट्टी, पानी की स्थिति जैसे विषयों को देखते हुए प्रकृति को समझना होगा। बेहतर तो यही होगा कि सभी राजनीतिक लोग प्रकृति के संरक्षण और आपदा जैसे विषयों पर अपनी सोच को स्पष्ट कर इसे न केवल जनता के समक्ष रखें, बल्कि प्रभावी कदम भी उठाएं।
शहरी क्षेत्रों में तो विकास प्राधिकरण भवन मानचित्र पास करते हैं, लेकिन पर्वतीय व ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह व्यवस्था भी नहीं है?
मैं विकास की उस अवधारणा का पक्षधर हूं, जो कनेक्ट करे, लेकिन यहां की परिस्थिति के अनुरूप हो। एक और महत्वपूर्ण बात यह कि जो नियम-कायदे बनाए जाएं, उनका सभी अनुपालन करें।
इस सबको लेकर व्यवस्था को ठीक करने की आवश्यकता है। इसके लिए सरकार को कदम उठाने चाहिए, ताकि पर्वतीय व ग्रामीण क्षेत्रों में हो रहे किसी तरह के निर्माण पर नजर रखी जा सके। यदि कहीं कुछ अनियोजित और स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप नहीं है तो उसे रोका जाना चाहिए।
पहाड़ों में उद्योग चढ़ाने की बात तो होती रही है, लेकिन अभी यह मुहिम आकार नहीं ले पाई है, क्या कहेंगे?
मेरा मानना है कि पहाड़ में औद्योगिकीकरण होना चाहिए, लेकिन स्थानीय संसाधनों को महत्व देते हुए। स्थानीय मानव संसाधन का सहयोग लेना होगा। जिस तरह पहाड़ पर चढ़ते-चढ़ते वृक्षों की लंबाई घटती जाती है, ठीक उसी तरह उद्योगों के आकार-प्रकार के बारे में भी कहा जा सकता है। कहने का आशय यह कि पर्वतीय क्षेत्र में छोटे-छोटे उद्योग लगाए जाएं।
आपके दृष्टिकोण में हिमालय का भविष्य क्या है?
देखिये, यह संकट का समय है। वर्षा, आपदाएं निरंतर आएंगी। ऐसे में पूरे हिमालय का नए सिरे से रिव्यू होना चाहिए। जैसी स्थिति है, उसे देखते हुए यदि हम अब भी बेफिक्र बने रहे तो दुश्वारियां बढऩा तय है।
राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री कार्यालय और नीति आयोग को हिमालय के बारे में गंभीरता से मंथन कर कदम बढ़ाने होंगे। आपदा से सबक लेते हुए हिमालयी राज्यों के लिए स्थिर माडल तैयार करना समय की मांग है। हिमालय को बचाने के लिए सरकार के साथ ही आमजन को भी न केवल सोचना होगा, बल्कि आगे आना होगा।
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