मैड्रिड में चमका देहरादून का परचम, पद्मश्री डा. बीकेएस संजय और उनके बेटे ने बढ़ाया मान
मैड्रिड में आयोजित सिकॉट ऑर्थोपेडिक वर्ल्ड कांग्रेस में पद्मश्री डा. बीकेएस संजय और उनके पुत्र डा. गौरव संजय ने आर्थोपेडिक सर्जरी पर अपने शोधपत्र प्रस्तुत किए। डा. संजय ने किफायती मीडियल ओपन वेज हाई टिबियल ऑस्टियोटामी तकनीक बताई जबकि डा. गौरव ने पर्क्यूटेनियस नेगेटिव सक्शन ड्रेनेज तकनीक को महत्वपूर्ण बताया। सेरेब्रल पाल्सी पर भी उन्होंने विचार रखे जिसके लिए कम उम्र में सर्जरी को बेहतर बताया गया।

जागरण संवाददाता, देहरादून। स्पेन की राजधानी मैड्रिड में आयोजित 45वें सिकॉट ऑर्थोपेडिक वर्ल्ड कांग्रेस में दून के चिकित्सक पिता-पुत्र की जोड़ी ने अपनी अलग छाप छोड़ी। प्रख्यात आर्थोपेडिक सर्जन पद्मश्री डा. बीकेएस संजय और उनके पुत्र डा. गौरव संजयने अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपने शोधपत्र प्रस्तुत कर न केवल भारतीय चिकित्सा विज्ञान की क्षमता को उजागर किया बल्कि दून का नाम भी रोशन किया। तीन दिनों तक चले इस सम्मेलन में विश्वभर से हजारों विशेषज्ञ शामिल हुए।
डा. बीकेएस संजय ने अपने शोधपत्र में मीडियल ओपन वेज हाई टिबियल ऑस्टियोटामी तकनीक पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि यह शल्य-प्रक्रिया टोटल नी-रिप्लेसमेंट की तुलना में अधिक किफायती और व्यावहारिक विकल्प है।
विशेषकर एशियाई देशों में जहां दैनिक जीवन में पालथी मारकर बैठना और स्क्वाटिंग अनिवार्य गतिविधियां हैं, वहां इस तकनीक से मरीजों को अधिक लाभ हो सकता है। उन्होंने यह भी बताया कि कई ऐसे रोगी, जिन्हें अब तक केवल नी-रिप्लेसमेंट ही अंतिम विकल्प माना जाता था, इस तकनीक से लंबे समय तक सहज जीवन जी सकते हैं।
इसी मंच पर डा. गौरव संजय ने पर्क्यूटेनियस नेगेटिव सक्शन ड्रेनेज तकनीक पर अपने शोध साझा किए। उन्होंने बताया कि यह तकनीक उन रोगियों के लिए वरदान साबित हो सकती है, जिनमें टिबिया फ्रैक्चर के बाद कंपार्टमेंट सिंड्रोम की आशंका रहती है। यह विधि सरल, सुरक्षित और कम खर्चीली है, और ग्रामीण व अर्ध-शहरी क्षेत्रों में भी आसानी से अपनाई जा सकती है।डा. गौरव ने सेरेब्रल पाल्सी पर भी अपने अध्ययन में महत्वपूर्ण बातें रखीं।
उन्होंने बताया कि भारत जैसे विकासशील देशों में सामाजिक-आर्थिक कारणों से यह समस्या अधिक है। उन्होंने कहा कि जब डिफार्मिटी या कान्ट्रैक्चर से रोगियों की दैनिक गतिविधियां प्रभावित होने लगती हैं, तब शल्य चिकित्सा अनिवार्य हो जाती है। उनके अध्ययन से यह निष्कर्ष निकला कि कम उम्र में की गई शल्य चिकित्सा अधिक सफल रहती है और रोगियों को बेहतर जीवन गुणवत्ता प्रदान करती है।
सम्मेलन में उपस्थित विशेषज्ञों ने पिता-पुत्र की इस चिकित्सकीय जोड़ी की सराहना की और उनके शोध को जीवन-परिवर्तनकारी करार दिया। आयोजकों ने भी कहा कि भारतीय चिकित्सकों की यह प्रस्तुति भविष्य में एशियाई और विकासशील देशों की स्वास्थ्य सेवाओं के लिए नई दिशा तय कर सकती है।
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