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    Chipko Movement: पेड़ों को बचाने के अनोखे तरीके से पहाड़ की महिलाओं ने दुनिया में छोड़ी थी छाप, पढ़ें इतिहास

    By Jagran NewsEdited By: Nirmala Bohra
    Updated: Sun, 26 Mar 2023 11:46 AM (IST)

    Chipko Movement चिपको आंदोलन आज अपने 50 वें वर्ष में प्रवेश कर गया है। महिलाओं के पर्यावरण संरक्षण और विरोध के अनोखे तरीके के कारण आज चिपको आंदोलन को भारत ही नहीं बल्कि विश्वभर में जाना जाता है।

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    Chipko Movement: चिपको आंदोलन आज अपने 50 वें वर्ष में प्रवेश कर गया है।

    संवाद सहयोगी, गोपेश्वर: Chipko Movement: पेड़ों को बचाने के अनोखे तरीके से पहाड़ की महिलाओं ने इतिहास रचा और दुनिया भर में अपनी छाप छोड़ी। चिपको आंदोलन आज अपने 50 वें वर्ष में प्रवेश कर गया है।

    1973 में शुरू हुए आंदोलन के तहत 26 मार्च 1974 को तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली जिले की ग्राम रैणी निवासी गौरा देवी के नेतृत्व में 27 महिलाएं अलकनंदा घाटी के जंगलों में पहुंचीं और पेड़ों से लिपटकर उन्हें काटने को लेकर विरोध किया।

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    उनके अहिंसक विरोध का ही असर रहा कि पेड़ काटने पहुंचे ठेकेदार के साथ वन विभाग को भी कदम पीछे खींचने पड़े और अगले 10 वर्षों तक घाटी में पेड़ काटने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। महिलाओं के पर्यावरण संरक्षण और विरोध के अनोखे तरीके के कारण आज चिपको आंदोलन को भारत ही नहीं, बल्कि विश्वभर में जाना जाता है।

    ऐसे अस्तित्व में आया चिपको आंदोलन

    • वर्ष 1971 में गोपेश्वर में स्थानीय निवासियों की ओर से वन विभाग की नीतियों के विरोध में विरोध-प्रदर्शन किए गए।
    • वर्ष 1972 में बड़ी रैलियों के साथ वन विभाग के खिलाफ विरोध मार्च हुए, लेकिन इसका कोई खास असर नहीं हुआ।
    • वर्ष 1973 की शुरुआत में वन विभाग ने सिमोन कंपनी के साथ 300 पेड़ों को काटने का करार किया।
    • 24 मार्च 1973 को मंडल में सैकड़ों ग्रामीण जुटे और उन्होंने ढोल-दमाऊ के साथ पेड़ों को काटने आए ठेकेदार और
    • श्रमिकों का विरोध किया।
    • 20 जून 1973 को वन विभाग ने फाटा के जंगल में कुछ और पेड़ों को काटने की अनुमति दे दी।
    • जनवरी 1974 में वन विभाग की ओर से रैणी गांव के जंगल में 2500 पेड़ों को काटने के लिए निविदा निकाली गई।
    • 24 मार्च 1974 को पर्यावरणविद चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में रैणी गांव की महिलाएं विरोध-प्रदर्शन के लिए जंगलों में
    • पहुंचीं।
    • 26 मार्च 1974 को स्थानीय निवासी गौरा देवी के नेतृत्व में 27 महिलाओं ने रैणी के जंगल में पेड़ों से लिपटकर उन्हें
    • काटने का विरोध किया। इस प्रतिरोध को ‘चिपको आंदोलन’ के नाम से जाना गया।
    • 10 साल तक अलकनंदा घाटी में पेड़ों को काटने पर प्रतिबंध लगाया गया, यह चिपको आंदोलन का असर रहा।
    • 1980 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने हिमालयी क्षेत्र में वनों के कटान पर आगामी 15 साल के लिए
    • प्रतिबंध लगा दिया।

    खत्म हो रहा जल, जंगल और जमीन से जुड़ाव : बाली देवी

    चिपको आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली गौरा देवी की साथी बाली देवी कहती हैं, ‘आज धीरे-धीरे जल, जंगल और जमीन के प्रति जुड़ाव खत्म होता जा रहा है।

    विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हो रहा है, जिससे बड़ी आपदाएं आती रहती हैं।’ गौरा देवी के साथ बाली देवी भी चिपको आंदोलन का हिस्सा रहीं। उस दौर को याद करते हुए बाली देवी बताती हैं, गौरा के कार्यों को देखते हुए गांव की महिलाओं ने उसे महिला मंगल दल का प्रमुख बनने का प्रस्ताव दिया था।

    गौरा उस वक्त 40 की उम्र पार कर चुकी थी, लेकिन उसने प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए आजीवन जंगल को बचाने का संकल्प लिया था। अपनी टीस साझा करते हुए बाली देवी कहती हैं, गौरा के काम को मैंने नजदीक से देखा है।

    उसकी मृत्यु 66 वर्ष की उम्र में ही हो गई थी, लेकिन अफसोस! उनके बारे में न तो कविताएं लिखी गईं और न उन्हें वो पहचान मिली, जिसकी वो हकदार थीं। उस दौर में चिपको आंदोलन पेड़ों को बचाने की एक अनोखी मुहिम थी।